पंचदशी | Panchdashi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४६२) पश्चदशी- [ तच्यविवेक- ३०७ इस प्रकार तत्‌ सी पर्दाक अथोंकों कहकर वादयके अथकों कहते हैं कि तमोगुणप्रधान, मलिनसखप्रधान, विशुद्धसच्वप्रधानरूप तीन प्रकारकी भी पररुपर पिरुद्ध २ उस मायाको छोडकर अखेड ( भेद्रहित ) सताविदानंदरूप बक्ष महावाक्‍यसे लक्षित होता है अर्थात्‌ जाना जाताहे अथात्त लक्षणावृत्तिसे परबह्म बोध होताहै॥४ द॥ सोधइ्यमित्यादिवाक्येणु विरोधाचसदिदतयो: त्यागेन भागयोरेक आश्रयों लक्ष्यते यथा ॥ ४७। कदायित्‌ कोई को कि इस मकार लक्षणावातिते वाकयके अर्थका ज्ञान कहाँ देखा है इस शकाकी निवृत्तिके लिये कहते ह कि सोय॑ देवदततः € वह यह दत्त है ) इत्यादि वाक्योंम वह देश वह काल ओर यह दश यह कालरूप विरुद्ध बर् मोके विरोधत तत्‌ और इदयस शब्दक अथांकी एकता नहीं हो सकती; इससे विरुद्ध शरहूव भागोंके व्यागसे अथात वह देश कार ओर यह देश काल इसके त्यागसे एक देवदत्तरूप आश्रय ( देही / जते रखा जाता है अथात जो शराश्यथारों दोनों देश कालोम एक है उसका बोध होता है उससे अभिन्न पह है ऐसी अमेद बुद्धि होतीं ,; है; भावाथ यह है कि सोयम इत्यादि वाक्योंगे जैसे ततू और अयथके विरोधसे | | विरुद्ध २ भागोंके त्यागस जसे एक देवदत जाना जाता है मायाविश्रे विह्ययेवस्म॒ुपाची परजीवयो अखंड सबिदानंद पर ब्रह्य लक्ष्यते अब इृष्टतकों कहकर दाष्टाीतिककों कहते है कि सोड्य देवदत्त:' इस वाक्यके ही अनुसार परतह्म जीवात्माकझी उपाय जो माया ओर अविदया है उन पूवाक्त माया और आविद्याकों स्यागकर अखंड साजच्चदानद € भंदराहेत परबह्य ) महावाक्योसे लखा जाताह अथांत जीवकी आविया ओर परखह्मकी मायाके स्थागसे सचिदानंद- रूप बह्मका ज्ञान हो जाता है.भावाथ यह है के बस ही परअह्म,जावकी माया अविया रूप उपधियोंको स्थागकर महावाद्योसि एक साबिदानंदरूप अहम लखा जाताहै ४८ | सविकल्पस्य लक्ष्यत्वे लक्ष्यस्य स्पादवस्तुता ॥| निविकल्पस्य लक्ष्यत्वं न हुई न व संभवि ॥ ४९ ॥ कदावित्‌ कोई वादी शंका करे कि महावाक्योंसे जो ब्रह्म रछूखा जाता है यह सविकल्प (विकल्पसहित ) है कि निर्विकल्प ? प्रथम पक्षमें दोष कहते है कि, विपरीतरूप माने नाम जाति आदि सहित जो हो उसे सविकृलप ऋहते हैं उसकों म्रहावाक्योंका लक्ष्य ( जानने योग्य ) मानोंगे तो महावाक्योंके लक्ष्यकों अवस्तुता




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