काव्य कल्पपद्रुम | Kavya Kalppadrum
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
53 MB
कुल पष्ठ :
405
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)*पतत्त्वं किमपि काव्यानां जानाति विरलो भुवि;
मार्मिकः को मरन््दानामन्तरेण मधुब्रतम् ।”
काव्य के तत्व को कोई बिरले ही जान सकते हैं। पुष्पों के
सौन्दर्य से मन सभी का अवश्य प्रसन्न होता है, पर उनके मधुर
श्सके मर्मज्ञ केवल भ्रमर ही होते हैं। काव्यको पद ओर सुनकर
बहुत से लोग अपना मनोरजञ्ञन अवश्य करते हैं, किन्तु इसका
अलौकिक रसानुभव केवल सहृदय काव्य-ममज्ञ ही कर
सकते हैं | काव्य में यही महत्व है। कांव्यात्मक रचना बेद्क
काल से प्रचलित है। स्वयं वेद में ध्वनि-गर्मित-व्यंग्यात्मक
ओर अलक्षारात्मक वरणणन है--
“दवा सुपर्णा सथयुजा सखाया समान बृक्ष॑ परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पल॑ स्वाद्वत्यनश्नन्नन्योडमिचाकशी ति ।”
“३० मुण्डकोपनिषद् खएड, १, सं० १
इसमें अतिशयोक्ति' अलक्कार हे ।
ध्वनि आदि परोक्षवाद तो वेद में प्रायः स्वेत्र ही है--
परोक्षवादों वेदोडयं' | अतणब--.
वेद ही काव्य का मूल है|
ओर सश्चिदानन्द्धन परमेश्वर द्वारा ही सबसे प्रथम इसकी प्रवृत्ति
हुईं है । पौराणिक काल में तो काव्यात्मक रचना प्रचुरता से
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