वचनसिद्ध अवधूत श्री भानीनाथ जी | Vachan Siddha Avadhut Shri Bhaninath Ji

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Vachan Siddha Avadhut Shri Bhaninath Ji by शेरसिंह - Shersingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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व्यक्ति अकसन- 2 ना न का अतरल्ल: प्रातः स्मरणीय अखण्ड वाल-न्रह्मचारी, लंगोट के सच्चे, वचन के पक्के, सरलचित्त, मितभाषी, मृदुभापी और सत्यभाषी श्रीमानीनाथजी महाराज नन्‍्हें बालक की तरह निश्छल और निष्पाप थे। दुनिया में रहते हुए भी वे दुनियादार नहीं थे। चाहे ह्डियाँ कैंपा देनेवाली कड़ाके की सर्दी हो, चाहे तन झुलसा देने वाली भीषण गर्मी, वे सदैव नंगे पाँवों ही घूमा करते थे। उनका खाना सात्विक और देश के सबसे गरीब आदमी के खाने जैसा नितान्त साधारण होता था। साधु बनने के बाद दिन में एक जून भिक्षाटन के लिए कुछ घरों में बारी-बारी से जाते थे। झोली में जो रोटियाँ आरती उन्हें ही छा में भिगोकर अन्य साधुओं के साथ मिल बैठकर खा लेते थे, शेष कुत्तों को डाल देते थे। रात को जब सारी दुनिया पैर पसार कर सोती, तब वे एकान्त में आसन लगाकर ध्यान निमग्न हो जाते थे। एक ही चादर रखते थे। जब बाहर जाते तब उसे बदन पर लपेट लेते, रात को जब थोड़ी देर के लिए सोते तव आधी चादर बिछा लेते, आधी ओढ़ लेते। किसी भी प्रकार के नशे या अन्य विकारों से परे थे। कहा तो यह गया है कि “काजर की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय, एक लीक काजर की लागे है पै लागे है।” लेकिन श्रीमानीनाथजी इसके अपवाद रहे। दुनिया रूपी काजर की कोदरी में रहते हुए भी काजर की यह एक लीक उन्हें लग नहीं पाई। उन्होंने तो अपनी जीवन-चदरिया जस की तस बे-दाग घरदी। श्रीभानीनाथजी ने कोई मौखिक या लिखित उपदेश नहीं दिये। उनका सदुआचरण और उनकी सात्विक जीवन-पद्धति ही उनकी आचार-संहिता थी, जिसको अपनाकर आज का कुंठा-अस्त व्यक्ति भी दिन-रात की हय-हाय को भुलाकर शान्ति व सन्तोष-पूर्वक जीवन-यापन कर सकता है। हि न




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