मायापुरी | Mayapuri

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Mayapuri by चन्द्रशेखर पाठक - Chandrashekhar Pathak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२७ गाया | मैं दपे-पाँव उस कोठरीके द्रवाजेपर जा पहुँचा , परन्तु वहाँ जो दृश्य दिजाई दिया ; उससे कछेजा काँप उठा । मैंने देखा, कि कई भीपणकाय मलुष्य उस कोठरीमें बैंठे हैं बीचमें एक झुन्द्री ख्री पड़ी हुई है। एक मनुष्य एक हाथसे उसका गला दबाये है. और दूसरे हाथमें एक लम्बा चमकीछा छूरा ताने बैठा है । यह्द देखकर में समझू गया, कि भब कुछ ही क्षणमें इसका प्राणान्त हुआ चाहता है । परन्तु इसकी रक्षा कैसे की जाये ? इस समय यह द्वृश्य देखकर में अपनी विपत्ति भूल गया। कीठ- रीका दस्वाजा भिडकाया हुआ था। उसके दरारोंसे यद्द दृश्य देखकर में अपनेको सम्दाल न खका और पिस्तोल द्वाधर्में लिये घडघडाता हुआ, उस कामरेमें घुस गया। जानेके साथ द्वी मने कसकर उस मनुष्यकों छात मारी। वह लछ्ुढ़ककर नीचे गिर पडा। साथ ही बह ख्री भी मपटकर उठ छड़ी हुईं। यह काम इतनी तैजीसे द्वो गया, कि शत्रुओको कुछ फरनेका अवसर ही न मिछा। थे एकाएक मुझे वहाँ देशकर घबडा गये; परम्घु इसके बाद छी उन सबॉने मुख्पर आक्रमण करना आरस्म किया। में अफेछा और ये कई थे। अब क्या क्यो ? कुछ सोचनेका भी,अवसर न था। क्षणमर बाद ही एक डुर्दान्त मद॒ष्य दवाथमैं पिल्तौलछ लेकर मेसे ओर रपटा | उसी क्षण मैं निर्जीब द्वोकर भूमिपर गिर पडता, परन्तु ज्यों दी उसने मेरी घोपडीसे निशाना साधकर पिस्तीरू दागना चाहा, त्योंदी एकाएक ड्सी




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