गीता का सार | Geeta Ka Saar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र गीताका सार प्‌ अ० १८ “केचछम पद कमयोंग और सांख्ययोग--दोनोेंमें ही आया है । प्रकृति और पुरुषके विवेकको लेकर कमयोग और सांझ्ययोग है । कमयोगमें सब क्रियाएँ शरीर; मन, बुद्धि और इद्धियोके द्वारा ही होती हैं, पर उनके साथ सम्बन्ध नहीं जुड़ता अर्थात्‌ उनमें ममता नहीं होती | ममता न होनेसे शरीर, मन आदिकी संसारके साथ जो एकता है, वह एकता अनुभवम आ जाती है । एकताका अनुभव होते ही खम्हपमें स्व॒तःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता हैं | इस वास्ते कमयोगमें 'केवलः पद शरीर, मन; बुद्धि और इन्द्रियोंके साथ दिया गया है---'कायेन मनसा चुद्धवा केवलरिन्द्रियेरपि' (गीता ७ । ११)। सांख्ययोगमे विवेक-विचारकी प्रधानता है | जितने भी कम होते हैं, वे सब पाँच हेतुओंसे ही होते हैं, अपने खन्यपसे नहीं । परंतु अहंकारस मोहित अन्तः:करणबालछा अपनेको कर्ता मान लेता है | विवेकस मोह मिट जाता है । मोह मिटनेसे बह अपनेकों कर्ता कैसे मान सकता है ? अथांत उसे अपने शुद्ध खरूपका अनुभव हो जाता है । इस वास्ते सांख्ययोगमें 'केचछ” पद खखूपते साथ दिया गया है---'केवलम आत्मानस' । अब इसमें एक बात विद्याप ध्यान दनेकी है. कि कमय॑ पनकेवल' दब्द शरीर, मन आदिके साथ रहनेसे शरीर, मन, आदिके साथ “अहं' भी संसारकी सेवा लग जायगा और : ज्यों-कान्यों रह जायगा, और सांख्ययोगम खख्पके साथ ' रनेसे में निर्लप हूं; में श॒द्ध-बुद्ध-मुक्त हूँ! इस प्रकार सु 65




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