अध्यात्म प्रबोध | Adhyatma-prabhodh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ देशनासार मूच्छादय इति, भावशस्त्र पारम्पर्यत्वेकसूत्रान्तरित स्वत एवं प्रत्याख्यानपरिज्ञाद्वारेण वक्ष्यति, यथा च शस्त्रस्य प्रकर्षगतिरस्ति पारम्पर्य वा विद्यते अशस्त्रस्य तथा नास्ति, इति दर्शयितुमाह---'नत्थि' इत्यादि, 'नास्ति' न विद्यते कि तद्‌ ? 'अशस्त्रं' 'शस्त्र' संयमः तत्‌ 'परेण पर' मिति प्रकर्षग॒त्यापन्नमिति, तथाहि--पृथिव्यादीनां सर्वतुल्यता कार्या न मन्दतीब्रभेदो5स्तीति, पृथिव्यादिषु समभावत्वात्‌ सामायिकस्य, अथवा शैलेश्यवस्था सयमादपि परः सयमो नास्ति, तद्‌ उर्द्ध गुणस्थानाभावात्‌ इति भावः । यो हि क्रोधमुपादानते बन्धतः स्थितितो विपाकतो5नन्तानुबन्धि लक्षयतःक्षयमाश्रित्य. प्रत्याख्यानपरिज्ञयाजानति सो5परमानादि- दर्श्यपीत्येतदेव प्रतिसूत्र लगयितव्यमित्याह--- योहि क्रोध स्वरूपतो वेत्ति अनर्थपरित्यागरूपत्वाज्ज्ञानस्य परिहरति च 'स मानमपि पश्यति परिहरति चेति, यदिवा यः क्रोध पश्यति आचरति स मानमपि पश्यति मानाध्मातो भवतीत्यर्थः एवं उत्तरात्रापि आयोज्यम्‌ । टीका का सारांश--श्रद्धावान मोक्षमार्ग पर चलने का इच्छुक साधक तीर्थंकरों के द्वारा प्रणेत आगमानुसार यथोक्त अनुष्ठान करने वाला, अप्रमत्त साधु ही उपशम श्रेणी क्षपक श्रेणी करने योग्य होता है; अन्य नहीं । और षड्जीवनिकायात्मक लोक को भी आगमोक्ति से जानकर पृथिवीकायिकादि जीवों को किसी भी प्रकार से कोई भय सन्ताप न हो, वैसा करना योग्य है, क्योंकि कषाय स्वरूप लोक के ज्ञान और प्रत्याख्यान से उन पृथिवीकायिकादि जीवों की हिसा का परिहार करने वाले से ही छः काया के जीवों को भय नहीं उत्पन्न होता । अथवा आगम के अभिप्राय को जानकर वैसा आचरण करने वालों के इस लोक का या परलोक का कोई भय नहीं रहता ।




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