कहानी संग्रह भाग 3 | Kahani Sangrah Part - 3

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Kahani Sangrah Part - 3 by काका कालेकर -Kaka Kalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बिसाती 3 हू “में अपहार देता हूँ; बेचता नहीं। ये विढायती और करमीरी सामान मैंने चनकर लिये हैं । जिनमें मूल्य ही नहीं; इृदय भी छगा है । ये दामपर नहीं बिकते 1” के सरदारने तीक्ण्ण स्वरमं कहा--' तब मुझे न चाहिये, ले जाओ, अठाओ । ”! “* अच्छा, अुठा ले जाओँगा । मैं थका हुआ आ रहा थोड़ा अवसर दीजिये, मैं हाथ-मुह धो ढूँ ।”--कहकर युवक भरभरापरी औखोंको छिपाते हुआ अुठ गया । सरदारने समझा, झरनेकी ओर गया होगा । विछम्ब हुआ, पर वह न आया । गहरी चोट और निमंम व्यथाको वहन करते, कढेजा ह्ाथसे पकड़े इुओ, थीरी गुलाबकी “ झाड़ियोंकी ओर देखने छगी। परन्तु झसकी आँसू-भरी अँखोंको कुछ न सूझता था । सरदारने प्रेमसे अुसकी पीठपर हाथ रखकर-पूछा--“ क्या देख रही हो १ ” “ मेरा अेक पाठतू बुखबुल शीतमें हिन्दोस्तानकी ओर . चला गया था । वह लौटकर आज सबेरे दिखढाओ पड़ा । पर जब वह पास आ गया और मैने झुसे पकड़ना चहा, तो बह झुघर कोहकाफ की ओर भाग गया !” शीरींके स्वरमें कम्प था, फिर भी वे झाब्द बहुत सैँभलकर निकडे थे । सरदारने दँसकर कहदा--“' फूछोंको बुलबुख्की खोज १ आइचय है। ” बिसाती अपना सामान छोड़ गया, फिर ठौटकर नहीं आया । श्ीरींने बोझ तो झुतार लिया, पर दाम नहीं दिया । “नस्ल




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