कल्याण [पंचम खंड] [फरवरी १९४५ अंक ] | Kalyan [Volume 5] [February 1945 Ank]
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.84 MB
कुल पष्ठ :
56
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पातालखण्ड 1]
क# युद्धमै उचके द्वारा सेनाका संद्ार और काठजित्का चघ +
| श 1 | १5
खंडगधारी हाथकों कटा देख सेनापतिने क्रोध भरकर चार्ये
हाथसे छवपर गदा मारनेकी तेयारी की । इतनेहीमें लवने
क्लिक
अर
हु छा शक
सपने तीखे वाणोंसि उनकी उस बॉहकों भी भुजबंदसहित काट
गिराया । तदनन्तर» कालायिके समान प्रज्वछित खड्ग हाथमें
छेकर उन्होंने सेनापतिके सुकुटमण्डित मस्तकको भी घड़से
अलग कर दिया । ही
सेनाध्यक्षके मारे जानेपर सेनामें मदहान् हाहाकार मचा ।
सारे सैनिक क्रोधमें भरकर लवका वध करनेके लिये क्षणभरमें
आगे बढ़ आये; परन्तु लवने अपने बा्णोकी मारसे उन
सबको पीछे खदेड़ दिया । कितने ही छिन्न-भिन्न होकर वहीं
ढेर हो गये और कितने ही रणभूमि छोड़कर भाग गये । इस
प्रकार सम्पूर्ण योद्धाओँकों पीछे हटाकर लव बड़ी प्रसन्ताके
साथ ,सेनामें जा घुसे । किन्हींकी वेिं; किन्हींके पैर,
'किन्डींकि कान, किन्हींकी नाक तथा किन्हींके कवच और
कुण्डढ कट गये । इस प्रकार सेनोपतिके मारे जानेपर सैनिकों -
+«. का भयछकर संदार हुआ । युद्धमे आये हुए, प्रायः सभी वीर मारे
गयें, कोई भी जीवित न बचा । इस प्रकार लवने शात्र-
ससुदायकों परास्त्र करके युद्धमैं' विजय पायी तथा दूसरे
योद्धाओंके आानेकी आशाड़ासे वे खड़े दोकर प्रतीक्षा करने
हनन द
कगे । कोई-कोई योद्धा भांग्यवया उस युद्धसे बच यये ।
उन्होंने ही. शात्रुघ्के पास जाकर रण-भूमिका सारा
समाचार सुनाया. ।. बालकके हाथसे कालजितकी
मृत्यु तथा उसके विचित्र रण-कौशालका छत्तान्त सुनकर
दतरुन्नको बड़ा विस्मय हुआ । वे बोले--'बवीरों ! तुमलोग
छल तो नहीं कर रहे दो १ तुम्हारा चित्त विकल तो नहीं
है १? कालजित्का मरण कैसे हुआ ! वे तो श्रमराजके ल्ये
भी दुर्घष थे ! उन्हें एक वालक कैसे परास्त कर सकता है !?
झतरु्की बात सुनकर खूनसे लथपथ हुए उन योद्धाओंने
कहां--'राजन् ! इम छल या खेल नहीं कर रहे हैं; आप
विश्वास कीजिये । कालजित्की सृत्यु सत्य है और वह लूवके
ददाथसे दी हुई है । उसका युद्धकौदाल अनुपम है । उस
बालकने सारी सेनाको मथ डाला । इसके बाद अब जो कुछ
करना हो; खूब सोच-विचारकर करें | जिन्हें युद्धके लिये भेजना
हो) वे सभी श्रेष्ठ पुरुष होने चाहिये ।” उन वीरोंका कथन
सुनकर शत्रुन्नने श्रेष्ठ बुद्धिवाले मन्त्री सुमतिसे युद्धके विषयमें
पूछा--'मन्तिवर ! कया तुम जानते दो कि किस वालकने मेरे
अश्वका अपदरण किया है १ उसने मेरी सारी सेनाका) जो
समुद्रके समान विशाल थी; विनाश कर डाला हैं ।?
खुमतिने कहा--स्वामिन् ! यदद सुनिश्नेष्ठ वाव्मीकिका
महान् आश्रम है; क्षत्रियोंका यहाँ निवास नहीं है । सम्भव
है इन्द्र हों और अमर्षमें आकर उन्होंने घोड़ेका अपहरण
किया हो । अथवा भगवान् शक्कर ही वाठक-वेषमें आये हो
अन्यथा दूसरा कौन ऐसा है; जो तुम्हारे अदवका अपहरण
कर सके । मेरा तो ऐसा विचार है कि अब तुम्हीं वीर योद्धाओं
तथा सम्पूर्ण राजाओसे घिरे हुए वहाँ जाओ और विशाल
सेना भी अपने साथ ले लो | तुम दायुका उच्छेद करनेवाले
दो; अतः वहाँ जाकर उस वीरकों जीते-जी बाँघ लो । मैं उसे
ले जाकर कौठुक देखनेकी इच्छा रखनेवाले श्रीरघुनाथजीकों
दिखाऊँगा ।
मन्त्रीका यह वचन सुनकर द्यत्रु्नने सम्पूर्ण वीरॉकों
आज्ञा दी--'ठमलोग भारी सेनाके साथ चलो; में भी पीछेसे
आता हूँ ।” आशा पाकर सैनिकॉने कूच किया । वीरोंसे मरी
हुई उस विशाल सेनाको आते देख लव सिंहके समान उठकर
खड़े हो गये । उन्दोंने समस्त योद्धाओको सर्गोके समान ठुच्छ
समझा । वे सैनिक उन्हें चारों ओरखे घेरकर खड़े दो गये ।
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