रसगंगाधर | Rasagangadhar

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Rasagangadhar  by पण्डित श्री बदरीनाथ झा - Pandit Shri Badarinath Jha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२६ प्रस्ता5५ . है, क्योंकि दृश्यकाव्य के माध्यम से ही मुझे रस का विवेचन करना है और ऐसा इसलिये करना है कि धश्वदाव्य के दारा द्वी रस का अनुभव स्पष्टरूप से किया अथवा कराया जा सकता है। हार्दिक आनन्दातिरेक के यसक बच्चों के खेल-कूद ही इब्यकाव्य की उतत्ति के मूल हैं | बच्चे जब किसी इश्ट वस्तु की प्राप्ति करते हैं अथवा जब उसके किप्ती अनिष्ट का जिस किप्ती तरह निवारण होता है, तब उनके हृदय में आनन्द की दाढ सी भा जाती हैं, उत्त आनन्द की वी बाढ़ वो थे अपने छोटे ददय-सरोवर में केन्द्रित नहीं कर पोते। फलत वह आनल हृदय से बाहर जाकर उनके अह-अह्ग में फूट पढता है और वे उठछ-कूद मचाने छगते है, आनन्द के शत प्रदर्शन में उन आनन्दित वर्च्चों से सहातुभूति रसने वाले दूसरे बच्चे भी सम्मिलित हो जाते हैं । बच्चों का यद आलन्द-प्रद्शन ( उछक्त-कूद ) बडे अमिमावकों को भौ रचिकर ही प्रतीत होता है । जब लोगों ने इस तरह के आनन्द-प्रदुशन के दर्शन से अपठा मनोर#न दोते देसा, तव कुछ जागरूक और कब्पना-शील हृदय वार्लो ने इस मनोरज्ञक साथन का अनुकरण करके मनौरश्न बरदे की परिपाटी चलाई। पीछे उस युग के कवियों ने श्स सत्रन्ध में कुझ और अधिक सोवकर यह तय किया कि यदि इन अनुकृत उच्चछ कूंदोंके साथ तदलुकूल वाणी भी रहे तो छोगें का और भणिक मनोरञन हो समता है। इस निष्कर्ष के अनुसार वे अतीत अथवा वर्तमान करिपत ढिंवा सत्य घटनाओं को पश्रदद्ध करके उनका अनुकरएण करने-कराने छगेजो वर्तुत मूछ अनुकएण से अधिक रोचक तिदइ हुआ । आज भी उस तरह दे अनुकरणात्मम पयवदध खेल प्रामों में यत्र तत्र दृ्टि-गीचर दोते दैं। उन्हीं अनुकरणों का नाम पीछे आकर 'अमिनय! पद । जिस पर पश्चाद्‌ अनेय पुखके हिसी गई, उसके अनेक भेद ( आह्िक, वाचिक भादि ) किये गये। इस तरह हमें मानना पढ़ता है कि उन्हीं भभिनयों के विकसित रूप आज के दृश्यकाव्य ( नाटक, ड्रामा आदि ) है। प्रारम्भ में उद्दापीद बाड़े शिक्षित जन उन अभिनवयों से आनन्दान्वित होकर यह छोचने के; हिंये अन्त करण के द्वारा विवश डिये गये कि नाटकौय वत्तुओं में वह दौन सी वर्तु है जिप्तमें यह आनन्द छिपा रहता है। उन तर्केशोल मातवों की गवेपगा का विषय वह आनन्द ही साहिलिक परिभाषा में पस्तः बहा जाता है, क्योंकि व्याकरण की प्रक्रिया के अनुमार 'रसः शब्द का मर्य होता है. वह बस्ु- विद्ञेष निप्झ आल्वादत किया जा सेके' । बहुत कुछ सोचने विचारने के दाद न तर॑शील मनुष्यों ने पहले यह तय किया कि नट अथवा नटी को अभिनय करते देख कर जिम प्रेमी अथवा प्रेमिका का स्मरण दर्शकों को हो जाता है और उन स्शतिपधारूढ प्रेमी-प्रेमिकाओं के वाए-वाए अनुसन्धान करने से एक प्रशर का मानन्द अनुभूत होने छगता है, वह प्रेम का आबन साहित्यिक परिंमापा में विसाव द्दी 'एत! है । तदभुप्ताए कु दिनों सक यह स्थूल तिद्धान्य प्रचलित रह कि “आख्वाबमान विभाद ही रस हैए। कुद्ध दिनों के बाद छोगों को विचार-घारा में पतिवतेन दुआ, उक्त सिद्धान्त अस्तगत प्रवीद ३. 'रस्पतैसल भास्वाचते इति रछ २ शभान्यमानों तिभाव छव रस!




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