रसकलस | Rasakalas

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Rasakalas by अयोध्यासिंह उपाध्याय - Ayodhyasingh Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विशेष वक्तठय “सकल्स” का जन्म देना सामयिक है या नहीं, इसका विचार रप्तिक बूंद करें। मुझे) जो निवेदन करना है, उसे निवेदन करता हूं । यह सच है कि ब्रजभाषा का वह आदर अब नहीं रहा, कितु यह भी सत्य है कि जबतक वह बोलचाल की भाषा है, तबतक उसमे जीवन है । उसको पद्‌ अचना करनेवाले आज भी पर्याप्त संख्या मे मौजूद है, ओर उस समय तक उपस्थित रहेंगे, जबतक उसके बोलनेवाले घराधाम पर विद्यमान रहेंगे। भारतवप की जितनी प्रातिक भाषाएँ मरहटठी, बंगला, पंजाबो और गुजरातो आदि है, उन सबमे रचनाएँ हो, भोज- पुरी और मैथिली जैसी बोलियो मे कविताएं लिखी जावे, कितु ब्रज- भाषा का ही सह स्वत्व छीन लिया जावे, ऐसा कहना न्यायसंगत नहीं | जो जिसका ,प्राकृत'अधिकार है, उससे उसको वचित करना ठेढी खीर है, यह किप्ती के बूते को बात नहीं | इसलिये यह कहना कि अब त्रजभाषा मे कविता करना ऋकूख मारना ओर समय-प्रवाह के विरुद्ध चलना है, यदि प्रमाद नहीं तो अज्ञान अवश्य दै। रही झंगार रस की बात, इस विषय मे मुझे; यह कहना है, कि क्या झूंगार रस की रचनाएँ इस योग्य है कि उनको वक्र दृष्टि से देखा जावे, ओर उनकी कुत्सा की जावे! कदापि नहीं, झंगार रस ही साहित्य का शूंगार है, जिस दिन वह इस गोरव से वंचित होगा, उप्ती दिन उसका सोदय नष्ट हो जावेगा। श्ंगार रस पर जो खडग-हम्त हे, वे उत्तका मर्म' जानते ही नहीं; वे अम्रत को विष समम रहे है । अश्लील श्वगार रस अवश्य निदनीय है, फिर भी उस निदा को सीमा है, जहां वह किसी कला का अग होगा, वहाँ उसको उसी दृष्टि से ग्रहण करना होगा । जिन्होंने श्गार रस की कुत्सा ऋरने का बोड़ा ले रखा हे वे कल्लेजे पर हाथ रखकर बतलावे कि क्‍या




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