प्रज्ञापुरुष का समग्र दर्शन | Pragya Purush Ka Samagra Darshan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : प्रज्ञापुरुष का समग्र दर्शन  - Pragya Purush Ka Samagra Darshan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about मन्दाकिनी श्रीमाली - Mandakini Shrimali

Add Infomation AboutMandakini Shrimali

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
लक) “ही बात छः बैन मेरे इस शरीर की असंख्य कोशिकाएँ जिनके वात्सल्य और ममत्व के कण-कण से विनिर्मित हुईं, वे असंख्यों के परम पूज्य गुरुदेव पं0 श्रोराम शर्मा आचार्य मेंरे लिए अपने बाबा जी थे। लाखों करोड़ों को अपनी ममवा से धन्य करने वाली परम वन्दमीया माताजी मेरी दादी माँ थीं। जिन्हें मैं प्यार से अम्मा जी कहती थी। जब से मैंने होश सम्भाला, स्वयं को उन्हीं की गोद में पाया। मेरा बचपन, किशोरावस्था इन दोनों महान्‌ आत्माओं की छाँव में बीता। अपने विवाह के बाद भी मैं उन दोनों के अन्तिम क्षणों तक किसी न किसी तरह उनके अन्तरंग सात्रिथ्य में बनी रही। इस सुदीर्घ अवधि में मैंने उनके जीवन और विचारों को बड़े नजदीक से देखा, गहराई से जाना और यथा साध्य आत्मसात करने की कोशिश की। जन-जन के हृदय में परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वन्दनीया माताजी के रूप में प्रतिष्ठित श्रद्धेय बाबाजी और अम्माजी दो शरीर और एक प्राण थे। एक ही भावधारा, एक ही विचार प्रवाह, एक ही चिन्तन चेतना उन दोनों में प्रवाहित थी । एक ही महाप्राण से उन दोनों के प्राण स्पन्दित थे। बचपन के बीतते क्षणों के साथ ही परम पूज्य के अद्भुत व्यक्तित्व की प्रखर दीघ्ि के प्रभाव से मेरे अन्तःकरण में बोध के स्वर फूटने लगे । पर अभी वे अस्फुट थे, यदाकदा उनको लेकर एक साथ अनेकों जिज्ञासाएँ मन मे तरंगित हो उठती | समाधान के प्रयास में प्रायः हर बार वन्दनीया माताजी से यही सुनने को मिलता बड़े होने पर उनके विचारों का गहराई से अध्ययन करना, तब सभी कुछ स्पष्ट हो जायेगा। यही शायद वह बीजारोपण था, जो धौरि-धीरे अंकुर- पह्कव और पुष्षों में स्वयं को विकसित करता गया)! और आज ग्रन्थ के रूप में जिज्ञाुओं, सुधीजनों, उनके समर्पित शिष्यों, युग निर्माण मिशन के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले कार्यकर्त्ताओं के सामने है। “प्रज्ञा पुरुष का समग्र दर्शन ” नाम से प्रकाशित हो रहा यह ग्रन्थ सचमुच ही प्रज्ञापुरुष परम पूज्य आचार्य जी के जीवन का सच्चा व समग्र दर्शन है। वे अनन्त ब्रह्माण्डों के कथ-कण में व्याप्त परम चेतना के समर्थ द्रष्टा और जीबन दर्शन की समग्रता के अपूर्व-अश्रुतपूर्व व्याख्याता थे। बुद्ध की करुणा, शंकराचार्य का ज्ञान और महावीर का त्याग पाकर भी वे न चच की ओर भागे, म जीवन से मुख मोड़ा। बल्कि घोषित किया, ““गृहस्थ एक तपोवन है।'! उन्होंने बन्दनीया माताजी के साथ संयम, सेवा व सहिष्णुता की साधना करते हुए दो पुत्रों, दो मुत्रियों के पिता का दायित्व भली प्रकार निभाया! जीवन का कोई भी पक्ष हो छोटा या बड़ा, खान-पान, लोकाचार, शिष्टाचार के सामान्य प्रश्न हो या समाज, राष्ट्र, विश्व की उलझी हुई गुत्थियाँ अथवा आत्म साधना को जटिल पहेलियों, प्रकृति एव परमेश्वर के अबूझ रहस्य हर जगह उनके उत्तर सटीक और सार्थक हैं। ध्यात रखने की बात है, ये उत्तर मात्र वाणी या लेखनी से नहीं दिए गये, बल्कि स्वयं के आचरण से इनमें प्राण फूँका गया है। थे बातें किसी सामान्य चेतना में जीवन जीने वाले को साधारण लग सकती हैं। पर जिन्होंने स्वयं साधना कर चेतना के विशिष्ट शिखरों को पार किया है- वे जानते होंगे, सब सहज नहीं है। श्री रामकृष्ण परमहंस को बार-बार भाव समाधि में जाना पड़ता था। चैतन्य महाप्रभु पर निरन्तर एक तरह का भावावेश चढ़ा रहता था। व्यवहार कुशलवा वहाँ रहती है- जहाँ अपेक्षाएँ हों। अपेक्षा शूत्य होते ही व्यवहार शून्यता छाने लगती है। अपेक्षा-शून्यवा होने पर भी जीवन के समस्त क्षेत्रों में व्यवहार कुशल रहते हुए उलझनों के सटीक समाधान प्रस्तुत कर सकता उसी महायोगी से सम्भव है, जो मन के साथ प्राण और शरीर में भी ठीक-ठीक ईश्वरीय प्रकाश का अवतरण कर सका हो । पूज्य आचार्य जी के जीवन में चेतना जगत्‌ का यही दार्शनिक रहस्य उजागर हुआ था। मैंने जब कभी उनके बारे में सोचा, महाकवि




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now