दशरूपकम्र | Dashroop Kamra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
34 MB
कुल पष्ठ :
461
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about निवास शास्त्रिणा - Niwas Shastrina
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१६ |] दशरूपकम्
वतंतो और सशोधनों में उन नाव्याचार्यों के मन्तव्यों का भी प्रभाव पडा होगा, जो
भरत तथा धनञ्जय के मध्य के युग में रहे होगे ।
(१) दशरूपक की शेगी--इसकी शैली भरत के नाठ्यशारत्र से नितान्त
भिन्न है। नाट्यशास्त्र मे कोई बात अनेक वाक्यो में विस्तार से कद्ठी गई हे, श्लोक
पूर्ति के लिये बहत से शब्दों और वाक्याशों का प्रयोग किया गया है। इसके
विपरीत दशरूपक में गिने चुते शब्दों में नाट्य के मन्तव्यों को कह दिया गया हे।
इसकी कारिकाये सूत्र रूप में ही तथ्य को प्रकट कर देती हे । कही विवश होकर ही
भर्ती के शब्दो या वाक्याशो का प्रयोग त्रिया गया हे । यह अ्रवश्य हे कि कही कही
प्रत्यन्त सक्षेप के कारण अर्थ को स्पष्टता में बाधा पडती है। फलत वृत्ति की
सहायता के बिता अनेक लक्षण स्पष्ट नहीं होते । जहाँ कही नाट्यगारत्र फ्रे
विस्तृत विषय को प्रकट करने के लिये केवल एक शब्द का प्रयोग कर दिया हे, वहाँ
तो नाट्यशास्त्र ग्रथवा अन्य क्रिसी व्याख्या की सहायता से ही अर्थ समझा जा
सकतः! हे ।
परिभाषिक शब्दों के लक्षण करते समय धनज्जय ने कही कही निर्वेचन
शेली का भी प्रयोग किया हे । सम्भवत नाट्यशास्त्र से प्रभावित होकर ही
उन्होने इस शैती को अपनाया हे। उदाहरणार्य अविकार फलस्वाम्यमाविक्रारी
च तत्पभु” (११२) विशेषादाभिमुख्येत चरन्तो व्यभिचारिण” (४७)। किसी
विषय के भेद-प्रभेद दिखलाकर उनकी व्याख्या करना, यह भारतीय प्रतिपादन शैली
की प्रमुख विशेषता हे जो दशरूपक में आरम्भ से अ्रन्त तक हृष्टिगोचर होतो हे ।
नायक नायिका तथा रस आदि के जो भेद-प्रभेद घनञ्जय को सम्भव प्रतीत हुए है,
विस्तारपूर्वक बतलाये गये है । फिर भी वनज्जय ने परवर्ती लेखका की अपेक्षा सयम
से काम लिया हे ।
दशरूपक पद्ममय रचना हे । इस में अधिकतर गसनुण्टभ छन्द (एनोक) का
प्रयोग है। चारो प्रकाशों के श्रन्तिम पद्मयों मे तथा अन्यन भी १८ बार अ्रन्य छन्दा
का प्रयोग किया गया हे, जैगे---५ भ्रार्या वृत्त (१ ३, ४ १३, ४८३४५, 4 ७६---७७)
न हे स्रग्धघरा (१ ४, ४ ८, ४ २०)--३र इन्द्रवत्ना (८ ६,८४ ४६९--६ चरगा, ४ ८६)
1४ वसन्ततिलका (१६८, ३७६ ४७२, ४८५)-- १ उपजाति (२ ७२)+२९
शादू लविक्रीडित (४ ७३, ४ ७४) ।
छुन्दों के निर्वाह के लिये भाषा में भी परिवतन करना पडा है। कही छोटे
शब्दों का तथा कही बडे शब्दों का प्रयोग किया गया है, कही छाटे-छोटे समास हु
तो कही दीर्घ समास भी । समासों की विविधता छुन्द-निर्धाहू मे ब त सहायक हुई
है । कभी कभी छन्द की पूति के लिए 'आख्य' (१ १८) तथा 'अश्रथ! दृत्यादि शब्दों का
भी प्रयोग करना पडा है। धतड्जय ने 'स्थात्, भवेत, इप्यते, स्मृत इत्यादि शब्दो
व प्रयोग करके भी भर्ती के शब्दों को बचा दिया ह। इसके अझतिरिता छन्द-निर्बाह
User Reviews
No Reviews | Add Yours...