दशरूपकम | Dasharupakam

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Dasharupakam by धनंजय - Dhanajayनिवास शास्त्रिणा - Niwas Shastrina

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धनंजय - Dhanajay

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निवास शास्त्रिणा - Niwas Shastrina

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रैद ] वशरूपकर्म्‌ की अवलोक टीका पर है (छेणीलाए रण 1.00007 8८00० ण 0'॥ए416$ ९०1. पए. 9. २८०-मि०& पी० वी० काणे स्त$7, पृ० २४७) ऐसा प्रतीत होता है की ये सभी टीकाएँ अभी त्तक अप्रकाशित ही पड़ी हैं, सम्भवतः बहुरूप मिश्र की टीका प्रफाशित हो रही है (द्र० प57. पु० २४७) । इ1 समय केवल ,घनिक की दशरूपावलोक (अवलोक) दृत्ति ही उपचब्ध है, जो अनेक बार प्रकाशित हो चुकी है | वस्तुतः आज इस वृत्ति के कारण द्वी दशरूपक के महत्व को समझा जा सकता है । दशरूपक के अस्तव्यों को स्पष्ट करने का कार्य इस वृत्ति ने द्वी किया है। कारिका और वृत्ति दोनो मिलकर ही दशरूपककार धनज्जय के उद्देश्य को सिद्ध करते हैं । (५) धनिक का समय तथा कृतियों आवि--धनिक भी विध्णु के पुत्र थे ॥ अवलोक टोका के अस्त में यह लिखा मिलता है- 'इति विष्णु-सूनोधनिकस्प कृतो दशरूपावलोके रसविचारों नाम चतुर्थे: प्रकाश: ।' इसके विदित होता है कि घनिक विष्णु के पुत्र थे, वे धनर्जय के अनुज रहे होगे । किन्तु कुछ उल्लेखो के आधार पर यह प्रकट होता है कि धनझजय गौर धर्तिक दोनो एक ही व्यक्ति के नाम हैं ॥ साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ, विद्यानाथ आदि ने दशरूपक की कारिकाओं को धनिक के नाम से उद्घृत किया हैः-यदुक्त घनिकेन 'त चातिरसो ***“'लक्षा्ण // [दश० ३,३२--३३ तथा सा० द० ६.६४ | सम्भवतः इन विद्वानों को दृष्टि मे धनह्जय तथा धनिक एक ही व्यक्ति थे । इस मत का समर्थन इन युत्तियों से किया जा सकता है - (1) दशरूपक की कारिकाओ से पृषक्‌ दूत्ति मे फोई भज्भुजाचरण नहीं किया गया । प्राय यह देखा जाता है कि यदि वृत्ति, भाष्य या टीका का लेखक कोई भिन्न व्यक्ति होता है तो वह पृथक्‌ मड्भल किया करता है। (1) परवर्ती आचार्यों ने धनिक की कृति के रूप मे दशरूपक के उद्धरण दिये हैं जैसा अभी विश्ववाथ और विद्यानाथ के दिपय में कहा गया है । (00) यह इृत्ति दशझहूपक की कारिकाओं का अभिन्न अर्ठु सा श्रतीत होती है. इसके बिना दशरूपक अधूरा सा है। दूसरी और विद्वानों का विचार है कि घनज्जय और घनिक दो पिन्न-भिन्त व्यक्ति ही है ; क्योंकि (1) कारिका तथा वृत्ति मे कतिपय स्थलो पर मत-भेद दृष्टिगोचार होता है, उदाहरणार्थ २.२२ में 'सुखार्थ/ शब्द के अर्थ मे घनिक ने दो सम्भावनाएँ दिखाई हैं--“अप्रयासावाप्तधन:' था 'सुखप्रयोजन.” किन्तु वहाँ कोई निर्णय नही किया | इससे विदित होता है कि दृत्तिकार कारिकाकार से भिक्त व्यक्ति है । इसी प्रकार ३.४० में 'त्याज्यमू आवश्यक न च' यहां कारिकाकार का अपिप्रेत्त यह प्रतीत होता है. कि कथादस्तु के विकास के लिये जो आवश्यक हो उ्ते नही छोड़ना चाहिये डिन्‍्तु दृत्ति मे इसका अर्थ किया गया है--आवश्यक तु देवपितु- कार्याद्यवश्यमेव कवचित्‌ कुर्यात, | (९) हस्तलिदित प्रतियो मे यह लिखा मिलता है-




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