वक्रोकिजीवितम् | Vakroktijivita
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
255
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका रे
रचनाकार के नाम मे “छ” वर्ण जुड गया और उसका नाम कुन्तलछक लिखा जाने रूगा |
डॉ० दे की वक्रोक्तिजीवित की पुणष्पिका में कुन्तछक नाम के पाठान्तर का यही कारण
हो सकता है |
रचना की उपलब्धि तथा प्रकाशन $--कुन्तक की एकमात्र उपलब्ध कृति
है वक्रोक्तिजीवित' | ग्रन्थ जितना ही महत्वपूर्ण है, उसके पाण्डुलिपि की उपलब्धि
तथा प्रकाशन की गाथा भी उतनी ही दिलचस्प | प्रकृत सस्करण के अतिरिक्त इस
महनीय ग्रन्थ के चार संस्करण प्रकाश मे आ चुके है। किन्तु सभी संस्करणों का
आधार है डॉ० दे की सम्पादित वक्रोक्तिजीवित ही। और इस छुप्तप्राय ग्रन्थ को
प्रकाश मे छे आने का समस्त श्रेय हैं डॉ० सुशीलकुमार दे को। डॉ० दे ने अपने
सस्करण की भूमिका मे इस ग्रन्थ के पाण्डुछिपि की प्राप्ति तथा सम्पादन का विवरण
प्रस्तुत किया है। उन्हीं के कथन को यहां हिन्दी मे प्रस्तुत किया जा रहा है। ग्रन्थ
के प्रथम दो सस्करणों का प्रकाशन तो डॉ० दे ने ही किया है। प्रथम सस्करण का
* सम्पादन उन्होने प्रो० जैकोबी के सहयोग से किया था। सर्वप्रथम १९२० ई० में
मद्रास की हस्तलिखित ग्रन्थों की राजकोय पुस्तकालय की सूची में इस ग्रन्थ का नाम
प्रकाश मे आया। उस समय श्री दे साहब “इण्डिया ऑफिस ल्यइब्रेरी! लन्दन में कार्य
कर रहे थे। लाइब्रेरी के अध्यक्ष डॉ० एफ्० डब्त्यू० थामस ने श्री दे का ध्यान इस
ग्रन्थ को ओर आहृष्ट किया | पाण्डुलिपि को इण्डिया ऑफिस के माध्यम से ऋण-रूप
से प्राप्त करने के छिए उन्होंने आवेदन कर दिख, किन्तु मद्रास छाइब्रेरी का वैसा
नियम न होने के कारण उन्हें पाण्डुलिपि प्रात न हो सकी | डॉ० थामस के महत्वपूर्ण
प्रयासों से मद्रास लाइब्रेरी के अध्यक्ष ने १९२० में पाण्डुलिपि की एक प्रमाणित
प्रतिलिपि डॉ० दे को हन्दन प्रेषित कर दी। पाण्डुछिपि एकदम अशुद्ध थी, प्रत्येक
पंक्ति अशतः गायब थी । कुछ समय के लिए, उन्होंने इस कार्य को स्थगित कर दिया ।
यह जानकर कि डॉ० दे के पास इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को प्रति उपलब्ध है | प्रो जैकोवी
ने श्री दे महोदय को बॉन ( जर्मनी ) निमन्त्रित किया | वहाँ जाकर श्री दे महोदय ने
प्रो० जेैकीबी के साथ इसका अध्ययन किया। प्रो० साहब के एतद्विषयक अत्यन्त
अनुराग से समुत्साहित श्री दे महोदय अपूर्ण भी सामग्री के सम्पादन की तैयारी मे छग
गगे और वह प्रथम दो उन्मेपों की झुद्ध तथा पठनीय मूलप्रति तैयार करने मे सफल
हो गये। और जब ये दोनो विद्वान् तृतीय तथा चतुर्थ पर पहुँचे, तो इन लोगों ने
पाण्डुलिपि की प्रति को अत्यन्त अश्ुद्ध पाया | अन्ततः एकदम निराश होकर इन
छोगो ने कार्य को त्याग ही दिया |
भारत छोटने पर १९२२ में श्री दे महोदय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के
माध्यम से पुन मूलूप्रति को ग्राप्त करने का प्रयास किया, पर इस प्रक्रिया भे मी
सफलता की आशा उन्हे कम ही लग रही थी और स्वयं की उनकी स्थिति ऐसी नही
थी कि मद्रास जाकर पाण्डुछिपि का निरीक्षण कर सकते। कलकत्ता विश्वविद्याल्य
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