पाण्डव पुराणम् | Pandav Puranam

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Pandav Puranam by शुभचन्द्राचार्य - Shubchandracharya

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about शुभचन्द्राचार्य - Shubchandracharya

Add Infomation AboutShubchandracharya

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( १९ ) बनमें गये | वहां जाकर उन्होंने भीलको देखा । वह प्रत्यक्षम द्वोणाचायसे परिचित नहीं था। द्रोणाचार्यने उससे प्रूछा कि तुम कौन हो और तुम्होरे गुरु कौन है ! उसने उत्तर दिया कि मैं भीछ हूं और मेरे गुरु द्रोणाचार्य है | फिर द्रोणाचार्य बोढे कि यदि तुझे गुरुका साक्षात्कार हो तो त्‌ क्या करेगा ? उसने कहा कि मैं उनकी दासता करुंगा | तब आचार्यने कहा कि वह द्रोणाचार्य मै ही हूं। यदि तू बचन देता है तो में तुझसे कुछ याचना करना चाहता हूं। भीलका वचन प्राप्त कर द्वोणाचार्यने उससे अपने दाहिने हाथके अंगूठेको काठकर देनेके लिये कहा। तब आज्ञाप्रतिपालक गुरुभक्त भीलने तुरन्त अपना दाहिना अंगूठा काठकर दे दिया । हाथके अंगुठा रहित होजानेसे अब बह जीवधातको करनेवाले धनुपको ग्रहण नहीं कर सकता था। पापी व्यक्तिको शब्दाथवधिनी बिया नहीं देना चाहिये, यह विचार कर द्वोणाचारयने अज्जुनके लिये उक्त समस्त विद्या अर्पित कर दी। कपटी दुर्योधनद्वारा लाक्षागृह निर्माण और उसका दाह दुर्योधन आदि स्वभावतः ईर्षाल्ठ थे, वे पाण्डबोंकी समृद्धि न देख सकते थे । अत्न वे स्पष्ट वाक्‍्योंमे कहने लगे कि “हम सौ भाई और पाण्डव केवल पांच है, फिरभी वे आधे राज्यको भोग रहे है। यह अन्याय है। वस्तुतः राज्यको एकसौ पांच भागेमि “विभक्त कर सौ भागोंका उपभोग हमे और पांच भागोंका उपभोग पाण्डबोंको करना चाहिये था। यही न्यायोचित मार्ग थो।” इस प्रकार प्रूवमें महात्मा गंगिय आदिकोंके द्वारा किये गये राज्यविभागको दूषित ठहरा कर दुर्योधनादिक युद्धमें उद्युक्त हो गये। इन बचनोंको सुनकर भीमादिक पाण्डवोंको क्रोध उत्पन्न हुआ। परल्तु युधिष्ठिकके निवारण करनेसे वे प्रुवेबत्‌ शान्तही रहे । परल्तु दुर्योधनके हृदयमें शान्ति न थी। उसने उनके मारनेके निमित्त गुप्त रूपसे छाखका छुन्दर महल वनवाया और पितामह गांगियसे ग्राथैना की कि मैंने यह सर्वांगसुन्दर प्रासाद पाण्ड- वोके लिये बनवा दिया है, आप यह. उन्हें देदें | वे इसमें स्व॒तन्त्रतापवंक निवास करें और हम लोग अपने गृहमें स्थिर होकर रहें। यह सुर्नकर सरलचित्त गांगेयने दुरयोधनकी प्रार्थना स्वीकार कर छी। उन्होंने कहा कि यह अच्छाढी किया, एक गृहमें रहनेपर विरोध रहता है। अतएब स्वतन्त्रता- पैक अछग अलग रहनेसे स्थिर शान्ति रह सकेगी। इसी विचारसे उन्होंने पाण्डबोंको बुलाया और अपना अभिप्राय प्रगठ कर उन्हें छाक्षागृहमें भज दिया। शक्तिशाली पाण्डव दुर्योधनके कपटठाचरणसे अनभिज्ञ थे, अतः उन्होंने इसमें कोई विरोध प्रगट नहीं किया। ४ यह कथानक देवप्रभसूरिके पाण्डवचरित्र ( ३, २७९-३२१५ ) में भी प्रायः इसी प्रकारसे पाया जाता है। २ यह प्रसंग हरिवेशपुराणमंभी इसी प्रकारसे मिलता-छलता पाया जाता है। जैसे- पायप्रतापविज्ञानमात्सयॉपहता अथ | डुर्योधनादयः कठु सन्धिदूषणमुद्यताः ॥| पंच कोरवराज्यार्थमेकत: शतमेकतः | भुंजन्ति किमितोडन्यत्स्यादन्याय्यमिति ते जगु।॥ हू. पु. ४५, ४९-५०




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now