उसका खेल | Uska Khel

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Uska Khel by अशोक अग्रवाल - Ashok Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फिर यह सब : २४ “मुझे ऐसी कोई बीमारी नहीं है। अकसर मेरी मनःस्थिति ऐसी ही हो जाती है। कुछ पता नही लगता। लगता है शरीर मे केपकपाहुट बढती जा रही है। उँगलियाँ सुन्न होती जा रही हैं। और चेहरे पर ठण्डी बूंदें इकट्ठी होती जा रही है।” मैं इतना ही कह पाया। लगा मैं अपने असली भय को किसीसे भी नहीं कह सकता--किसीसे भी नहीं | यह सिर्फ मेरे साथ ही दफन हो जाएगा। ठीक उन हजारों-लाखों सपनों की सरह जो किपीसे नहीं कहे जाते । अपने तक से नही । “ऐसा कब से है ? ” नस मेरे और पास सरक आई थी। इस प्रश्न का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। है “अब में चलूँगा वरना रात और गहरी हो जाएंगी। मुझे अपने मित्न से मिलना बहुत जरूरी है। अन्यथा रातभर फिर मैं सो नही पाऊँगा।” मैं उठ खड़ा हुआ था । “ऐसी स्थिति में, मैं आपको जाने के लिए नहीं कह सकती। आपकी मानसिक स्थिति ठीक नही है। आपको स्लीपिंग पिल्‍्स की जरूरत है न। नही-नही मैं गलत नही हूँ । आपकी आंखें साफ बता रही है। आप यकीन रखिए यहाँ आपको कोई परेशानी महसूस नही होने दूंगी 1” नसे ने मेरा हाथ पकड़कर उसी पलंग पर वेठा लिया था। मैं असहाय भर विवशता के टुकड़ों से घिरा सिर्फ उसे देखता रह गया था। “लगता है आप अधिक सोचते है अथवा अपने विषय में विभिन्‍न गलतफहमियाँ पाले हुए हैं। दोनों ही अवस्थाएँ साधारण व्यक्ति के लिए खतरनाक हैं। क्‍यों ठीक हूँ न ?” नर्स फिर वही परिचित मुसकान मुसकराई 1 “आप अकेले तो नही हैं ! “ नस ने मेरे पैरो पर_आधा अलवान डाल दियाथा। “आपका सोचना गलत नही है। अकेलेपन का अच्छा-खासा अभ्यस्त हो चुका हूँ 1” लगा, मेरी आवाज कही दूर से आ रही है। “अभ्यस्त नही विवशता झहिएया । अकेलापन कम दुखदायी भाव नही




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