प्रसाद ग्रंथावली खण्ड 3 | Prasad Granthavali Khand 3
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
541
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)से भारतीय समाज को मुक्त करना चाहते हैं । जैसे छोटे-छोटे ब्रह्मचारी दण्ड कमण्डल ओर पीत वसन घारण किये समस्वर से गाते जा रहे थे-- कस्यचित्किमपिनोहरणीय मर्म्मवाक्यम5पिनोच्च रणीय श्रीपते पदयुगरमरणीय लोलया भवजल तरणोथ उन सबों के आगे दाढ़ी और घने बालो एक युवक चर धोती पहने जा रहा था । गृहस्थ लोग उन ब्रह्मचारियों को झोली मे कुछ डाल देते थे । विजप ने एक दृष्टि से देखकर मुंह फिराकर यमुना से कहा --देखा यह बीसवों शताब्दी मे तीन हजार बो० सी० का अभिनय समग्र ससार अपनी स्थिति रखने के लिए चचल है रोटी का प्रश्न सबके सामने हे फिर भी मूर्ख हिन्दू अपनी पुरानी भसभ्यताओ का प्रदर्शन कराकर पुण्य-सचय किया. चाहत है आप तो पाप- पुण्य कुछ मानते ही नहीं विजय बादू पाप ओर कुछ नहीं है यमुना जिन्हे हम छिपाकर कियां चाहते हें उन्ही कमों को पाप कह सकते हैं परन्तु समाज का एक बड़ा भाग उसे यदि ब्यवहार्य बना दे तो वही कर्म हो जाता है धर्म हो जाता है । देखती नही हो इतने विरुद्ध मत रखने वाले ससार के मनुष्य अपने- अपने विचारों में घामिक बने है । जो एक के यहाँ पाप है वह्दी तो दूसरों के यहाँ पुष्य है । (ककाल पू० ७२) 1 पाप ओर पुष्य का यह विश्लेपण मुल सामन्ती धारणा पर ही आधात है । विजय और निरजनदेव का विकसित रूप ही बया बीजगुप्त और कुमार गिरि नहीं है ? विद्वोदी विजय और यमुना मे शेखर और शशि की छवियाँ हैं । विजय को यमुना के प्रति प्रेम और विवाह का प्रस्ताव तथा यमुना का. पुष्प प्रधान समाज मात्र से बिरक्ति के द्वात हुए भी विजय के प्रति अव्यक्त स्नेह जो वाद में भाई वहन के सही रिश्ते मे बदल कर नियतिवादों हो जाता है शेखर और शर्शि मे दूसरे रूप मे मिलता है। इसे नये सम्बन्धो की शुस्आात की पहचान मानने है भी ककाल का यह नये महत्वपूर्ण हो उठता है। मृणाल में कही घण्टी तो नही हे ? हिन्दी के तीनो प्रतिष्ठित ओर निश्चय ही कई हृप्टियो से महत्वपूर्ण इन उपन्यासों का सम्बन्ध ककाल से मैं जानवूझ कर नहीं जोड़ना चाहता और नरमें ककाल को इनसे श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता हूँ । मेरा कुल उद्देश्य इतना ही है कि प्रेमचन्द के प्रचार और श्रतिष्ठा के दवाव मे ककाल से अकुरित सवेदना के उस स्वरूप को हमे नही भ्रूलना चाहिए जो परवर्ती हिन्दी उपन्यासो में विक- सित हुयो है। ककाल भारतीय समाज को सडाघ भौर बददवू पर पढ़ी हुई राख को खुरच देता है । लेकिन उपन्यास का यह उद्घाटन बन्दर वृत्ति वाला उद्- घाटन नही है कि इसे अति ययार्थवादी कह दिया जाय । यह उद्घाटन २० प्रसाद वाडमय
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