तुलसी ग्रंथावली खंड 3 | Tulsi Granthavali Khand - 3

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Tulsi Granthavali Khand - 3 by ब्रजरत्न दस - Brajratna Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न संत तुलसी दास-श्रंद्धाजलि रे पुराणों का सभी को उन्होंने अहम्मीयतं (प्रमुखता) दी श्रौर सबको साथ लेकर उन्होंने समाज का ऐसा ढाँचा जनता के सामने पेश किया जिसको सबने पसद किया । राम और रावण की लड़ाई क्या है निर्गुण. श्रौर सगुरय की चर्चा क्या है शिव शक्ति श्रौर विष्णु की इबादत (भक्ति) क्या है--इन सबका निचोड़ तुलसीदास ने पेश करने की कोशिश की । अकबर ने भी श्रपने ढंग से यह काम करने की कोशिश की थी पर उसकी श्रपोल जनता .तक. नहीं थी.८। दूसरी खास बात जो तुलसीदास ने की वह है कमें को अहम्मीयत देना । भारतीय सस्कृति कर्म से कुछ दूर हृटती जा रही थी । इसके लिये उन्होंने भक्ति का रूप सामने रखा जिसमें कमें श्रौर भ्रमल ही सब कुछ है । सिफ॑ उसुलो (सिद्धातो) की दुह्वाई देना तुलसीदा्त को पसद न .था । झपने सदेश को जनता तक पहुँचाने के लिये उन्होंने जनता को भाषा का ही सहारा लिया । जो काम झ्रव तक सस्क़ृत के जरीए किया जाता था उसके लिये उन्होंने श्रवधी जवान कों - चुना । क्योकि- वहू जानते थे कि यकजहूती (मंत्री ) ग्रोर एकता के लिये जनभापा को श्रपनाना बहुत जरूरी है इसलिये बहुत सी मुसीबते बरदाश्त करके भी बिना किसी शिःकक श्र डर के उन्होंने भारतीय सस्कृति को जनभाषा के जरीए हमारे सामने रखा । वह इस वात के हामी थे कि भारतीय सस्कृति की परपरा के रूप में तब्दीलो (परिवर्तन) होनी चाहिए श्रौर वह जनभाषा के जरीए ही हो सकती है । इसका श्राघार हमें मामूली इसन को नहीं मेरमामूली ( असामंन्य 0 इन्सान - यानी मर्यादा पुरुपोत्तम को बनाना पड़ेगा इसलिये उन्हांने राम को न्लुना। . . तुलसीदास इस वात को भी समकते थे कि जहाँ एक तरफ हिंदुस्तान में बहुत. से मत श्ौर फिक्‌ श्रा गए है पर वे श्रापस में टकराते है वहाँ दूसरी ..तरफ. गैर- हिंदुस्तानी (अभारतीय) नस्लो श्रौर खासकर इस्लाम का श्रसर भी समाज पर पड़ . चूका है । भक्ति-झ्रादोलन का ख़ास मुद्दश्ना ( उद्देश्य ) भेदभाव को दूर करना रहा . है इसलिये तुलसीदास श्रपने राम को नीच जाति के मल्लाह से गले मिलाते दे उन्हे सबरी के जूठ बेर खिलाते है श्ौर उनसे [दकन की छोटी-छोटी जातियों से भाई-चारे का रिश्ता कायम कराते है । इसी को हम मिली-जुली भारतीय सस्कृति का असली जामा पहुनाना कह सकते है। मै समभकता हूँ कि तुलसीदास को हद जाति का नुमाइदा ( प्रदिनिधि ) मानकर उन्हे तंग दाइरे (संकुचित। सीमा) मे बाँधता उनसे गैर-इंसाफ़ी करना है । तुलसीदास ्रपने जुमाने. का ऐसा त़कशा पेश करते है जो शायद दूसरी जगह मिलना मुश्किल है। एक मज़े की बात यह है कि उन्होंने भारत की परपराओं की बेक्द्री ( . झ्सम्मान ) नही की बल्कि जगह-जगह - उनको उभारा ही है। यह ठीक है कि वह सीधे इस्लामी मजूहुब फ़िलसफ़ा (दर्शन) श्रौर तहजीब की तरफ मुखातित्र न ही होते झौर न ही उन्होंने किसी झौर फ़िरके प्र हमला किया लेकिन सब क्े असरात (प्रभाव) उन्दोने लिए है। मै तो




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