मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास | Mithyatvi Ka Adhyatmik Vikas

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Mithyatvi Ka Adhyatmik Vikas by श्रीचंद चोरड़िया - Srichand Choradiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(३) उपपूक्त उदाहरण पते यह स्पष्ठ हो जासा है कि भिव्याटदी के भी आत्मा की उज्ज्वज्ता नहीं होती तो उन्हें प्रयम गुणत्यात में भी नहीं रखा जाता। जवाचार्य ने भ्रवधिध्वसन के प्रथम अधिकार में कहा है कि गुग की अपेक्षा गृग स्यान का प्रतिपादन क्रिया गया है जितमें विध्थात्वी फो प्रषम गुणस्थात में सम्मिश्षित क्रिया गया है। आचार्य मिश्नु ने लव पदाथे को चोवाई में मिध्यात्वी के विषय में निबेरा पदार्थ की ढाझ मे फहा है-- आउकर्मों में च्यार घनघातिया। त्यांप्तु चेतन गुणां रीहुबे घात हो॥ ते अश भात्र श्रयोपशम रहे सदा। तिण सू जीव उञ्नलो रहे अंश मातदो ॥॥ “४ जिप्त जिम कर्मी क्षयोपशम हुवे। तिम तिम जीव उजढो रहै आंध्र हो। जीव उजलो हुओ ते निजरा 6९ ॥४॥ देश थम्मी उजलो हुवे। तिण में निज़रा कही भगवान ॥ ज्ञानावरणी री पाँच प्रकृति समे। दोय क्षयोपशम रहे सदीव हो ॥ तिण स्‌ दो जज्ञान रह सदा । अश मात्र उजलछो रदे जीव द्वो ॥११॥ मिथ्यातीरें जधन्य दोय अज्ञान है.) इत्कृष्टा त्तीन क्नन्ञान हो॥ देश उणों दख पूर्व भणे। इतढो उत्कृष्टो क्षयोपशप भन्नान हो ॥१श॥ “ढाल १ अर्यात्‌ आाठ कर्मों मे चार “[ ज्ञानावरणीय-दर्शवावरणी य-मो हनी य- अर्तराप ) घनघाती कर्म है । इन कर्मों से चेतन जोव के स्वापाविक् ग्‌णों की चात होती है। पर्तु इन कर्मों का सब समय कुछ कुछ क्षयोरतम रहता




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