सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका खंड 3 | Samyak Gyan Chandrika Khand 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रकाशकीय * आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धातचक्रवर्ती विरचित लब्विसार-क्षपशासार की आराचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी कृत भाषाटीका, जो सम्यस्जानचन्द्रिका के नाम से विख्यात है के तृतीय खण्ड का प्रकाशन करते हुए हमें हादिक प्रसन्नता का अ्रनुभव हो रहा है । दिगम्वराचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती करणानुयोग के महान्‌ आचाये थ्रे। गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धघिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार तथा द्रव्यसग्रह ये महत्व- पूर्णा कृतियाँ आपकी प्रमुख देन हैं। पण्डितप्रवर टोडरमल जी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड तथा लब्धिसार व क्षपणासार की भाषाटीकाएं प्रथक-पृथक बनाई थी । चूंकि ये चारो टीकाऐं परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित तथा सहायक थी, अत सुविधा की दृष्टि से उन्होंने उक्त चारो टीकाश्रो को मिलाकर एक ही ग्रथ के रूप में प्रस्तुत कर दिया तथा इस ग्रथ का नामकरण उन्होने 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' किया । इस सम्बन्ध में पण्डित टोडरमल जी स्वय लिखते हैं - ' - या विधि गोम्मटसार, लब्धिसार ग्रन्थनिकी, ५ भिन्न-भिन्न भाषाटीका कीनी अर्थ गायक । ० न इनिक परस्पर सहायकपननौ देख्यौ ताते एककर दई हम तिनकौ मिलायकी ।। सम्यगज्ञानचन्द्रिका धर्यो है याको नाम, ! सोई होत है सफल ज्ञानानन्द उपजायक । & २४० कलिकाल रजनीमें प्रर्थ को प्रकाश करे, याते निजकाज कीजे इष्टभाव भायक | इस ग्रथ की पीठिका के सम्बन्ध में मोक्षमार्ग प्रकाशक की प्रस्तावना लिखते हुए डॉ० हकमचन्द भारिल्ल लिखते हैं-- “सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखी गई है। प्रारम्भ में इकह त्तर पृष्ठ की पीठिका है। भ्राज नवीन शैली के क्षेत्र मे लगभग दो-सौ बीस वर्ष पूर्व लिखी गई सम्यग्शान-चन्द्रिका की पीठिका श्राधुनिक भूमिका का भ्रारम्भिक रूप है। किन्तु भूमिका का श्रायरूप होने पर भी उसमे प्रौढता पाई जाती है, उसमें हलकापन कही भी देखने को नही मिलता । इसके पढने से ग्रथ का पूरा हा खुल जाता है एवं इस ग्रूढ ग्रथ के पढने में आनेवाली पाठक की समस्त कठि- नाइयाँ दूर हो जाती हैं । हिन्दी श्रात्मकथा साहित्य में जो महत्व महाकवि पण्डित बनारसीदास के श्रद्धकथानक' को प्राप्त है, वही महत्व हिन्दी भूमिका साहित्य में सम्थग्ज्ञानचन्द्रिका की पीठिका का है ।” इस ट्रस्ट द्वारा गतवर्ष सम्यस्ज्ञानचन्द्रिका का प्रथम भाग (गोम्मटसार जीवकाण्ड) प्रका- शित किया गया था, जिसका समाज ने बडे आदर के साथ स्वागत किया और श्रल्पकाल में ही [२1]




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