इन्दिरा गांधी के दो चेहरे | Indira Gandhi Ke Do Chehare

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Book Image : इन्दिरा गांधी के दो चेहरे  - Indira Gandhi Ke Do Chehare

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह फ़ैसला करने वाले ये कि उनके मंत्रिमंडल में किसे-किसे रखा जाये। तैकैन॑ उसी दिन रात को यशपाल कपूर ने प्रधान मंत्री के दिमाग़ मे एक और संशय का बीज बो दिया, जिसकी वजह से पूरा नक्शा ही बुनियादी तौर पर बदल भया। उनके लिए ज़रूरी नही था कि वह यशपाल कपूर की बात पर ध्यान देती, लेकिन इस बात से कि उन्होंने यशपाल कपूर के सुझावों को माव लिया यही पता चलता है कि खुद उनके मन मे क्या-क्या संदेह थे। यशपाल कपूर मे श्रीमती गांधी की एक छोटा-सा पर्चा लिखा: “त्रिपाठी जी मुख्य मंत्री तो बन जायेंगे, लेकिन जब वह्‌ अभी आपकी वात नही मानते तो आगे चलकर तो न जाने क्या करेंगे २! प्रधान मंत्री ने नारायणदत्त तिवारी को मना कर दिया कि जब तक उन्हें नया आदेश न मिले तब तक वह गवर्नर के पास पत्र लेकर न जायें। अगले दिन बहू हवाई जहाज से केरल चली गयी। नारायणदत्त तिवारी ने लखनऊ से त्रिपाठीजी को टेलीफ़ोन करके उन्हे बताया कि उस समय स्थिति क्या थी। उसी दिन सुबह शंकरदयाल शर्मा और दीक्षितजी ने त्रिपाठी से पूछा कि वे कब आ जायें। तिपाठीजी जले-भुने बैठे थे। उन्होंने कहा, “मिनिस्ट्री-विमिस्ट्री नही बनेगी मैं वतारस जा रहा हूँ । अगर उन्हें मेरी जरूरत हो तो मुझे बुलवा लें।'! शर्मा और दीक्षित ने प्रधान मंत्री को केरल टेलीफीन किया। “अगर वह नाराज हैं तो नाराज रहें, में यहाँ से क्या कर सकती हूँ ?” बस इतना कहकर उन्होंने देलीफोन रख दिया। बहुगुणा मुख्य मंत्री बन गये । इसके फ़ौरन ही बाद १६७४ के विधानसभा के चुनावों के समय ही बहुगुणा पर यहू आरोप लगाया गया कि उन्होंने जान-बुककर उन उम्मीदवारों को हरवा दिया या जिनके बारे में यह समझा जाता था कि उनकी वफादारी सीधे दिल्ली के साथ है।” यह एक अनोखा विचार था; आख़िर 'दिल्ली के साथ वफादारी' का मतलब क्या था ? एक वफ़ादार कांग्रेसी ने पूरे दावे के साथ इसका मतलब समभाते हुए कहा, “इन्दिरा गाधी के लिए वफादारी । आप तो जानती ही हैं, उस तरह के लोग जो कहते हैं कि 'हम तो काप्रेस में इन्दिराजी की वजह से हैं।” “और पार्टी के साथे वफादारी ?” मैंने उनसे पूछा । “हाँ, वह तो है ही, लेकिन एक निजी लगाव भी होता है, आप किस नेता को पसन्द करते हैं। पह राजनीति का, इस दलबंदी का एक हिस्सा है। इसे मानना ही पता 1 सच पूछिये तो आक्लिर सी० दी» गुप्ता-गरुप क्यों था, तिपाठी-ग्प सचमुच, क्यों है ? जो लोग नेहरू को चाहते थे और जो पटेल ** को थे, वे दोनी ही कांग्रेस के अन्दर क्यों थे ? लेकिद यह एक ऐसा बता पक कांग्रेस को इस बात की ज़रूरत थी कि उसके अन्दर अलग-अलग विचार, असग- अलग विचारधाराएं अलग-अलग ध्रुवों पर केन्द्रित हो जायें, इसलिए अलग- अलग दिशाओं में बहने वाली घाराओं का होना अनिवायं था। १६६६ के दाद जब इन्दिरा गांधी ने वामपंच की ओर मुकाव को सिद्धांत का सवाल बना लिया और उन्हें इतना जबदेंस्त समथेन मिला तब पार्टी को केवल एक कार्यक्रम के भाधार पर एकताबद रखा जा सकता था। इससे इंकार नही किया जा सकता कि बाँगला देश के युद्ध और उसके बाद की घटनाओं में दो साल निकल गये । लेकिन १६७३ के महीने सचमुच प्रीक्षा की घड़ी थे। लेकिन १६७४ में ही जोड़- राजनीति के मोहरे : २७




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