संस्कृत काव्य लहरी | Sanskrit Kavya Lahari

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Sanskrit Kavya Lahari by डॉ संसारचंद्र - Dr. Sansarchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र्‌ ्‌ रु शालिख ऐसे गोरख-धन्धे में जफडा गया, ऐसे कीचड में जा फंसा मिससे निरुलमा कठित हो गया। वैयक्तिक निरीक्षण, निजो ्रमुभव, विचार-स्वातन्ध्य सब्र लुप्त हो गये । पराधीनता इतनो यही कि उसने मोह-मन्त्र का काम किया। कवि अपने- आपको भूल गया और जगा चक्कर काटने नस-शिसर को भूल-मुलेयो में । काब्य का खरोत मन्‍द द्वो गया। नये साहित्य की श्रावश्यकता प्रतीत होते लगी। यहों थ्रायश्यऊ सादित्य कुद् शताब्दियों के उपरान्त हिन्दी के भक्ति- काब्य में भारत को मिला । यों तो संस्कृत साहित्य में रचना-रली-भेद से गय-पद्य का 'ध्थक्‌ वर्गी- करण नहीं किया गया। गय-पद्य लेसफों को कवि का गया है। काब्य, नाटक थादि सब एक ही सूत्र में इस प्रकार पिरोये गए ह जते माला में विविध मणि | फेवल विभाग-दृष्टि से हम कद्द सऊते हें कि रामायण-मद्दा- भारत के रचग्रिता घाल्‍्मीडि-ब्याप्त के भ्रतिरिक्त प्रमुस कवि ये हैं--अश्वघोप, कालिदास, भाररि, साघ, रत्नाफर, श्रीदष। इसी प्रकार माटककारों से प्रसिद्ध नाटकफार भास, शुद्रक, कालिदास, हर्षवर्भेन, भवभूति, विशासद॑त्त, भट्ट नारायण, राजशेसर श्रौर कृष्ण मिश्र हैं । भसिद्र गध-लेखक दणदी, सुबन्‍्धु और बाण हैं। काब्य कई रूपों में लिसा जा समता है। मदारुब्य, नाटक, गद्य भ्रादि रूपों के भतिरिक्त गीति-काब्य भो एक रोचक रूप है। इसमें ्रधान कृतियाँ ये दैं-कऋतु-संद्वार, मेधदूत, ससशती, भव्‌'दरिशतकत्रय, अमरुशतक, गीत- गोविन्द, भामिनो-तिज्ञास श्राश्यान-साहित्य में पश्मतन्त्र भौर द्वितोपदेश तो भ्रचलित हैं ही, परन्तु स्प्रमुफ सोत-रूप में 'बूहस्कपा! कथापस्तरित्सागर, बृद्दकूथा मझरी विश्व- सादि/्व में भी उच्च पद॒वी प्राप्त करने योग्य है । पेविद्यासिऊ काब्यों में हर्ष- चरित और राजतरद्निणी प्रसिद हैं। गध-पद्ममप कास्यों में रामाययचम्वू) नद्मचम्प्‌, ्यरदाम्विरापरिणयचस्पू भादि प्रसिद दे । भव हार $ मत दरि के नोतिमय काब्य से कुछ एक गोतियों इस संप्रद में उद्धत की गई हैँ । सन्‌ दरि फो संसार का बड़ा अनुमय था। इनकी सार्मिक भावकता का परिचय्र इनके शतऊों ले मिलता द्े। जीवन के विविध श्रनुभव मधुर, कहु, तीदण शरीर दारण इनकी कृति में मिलते हैं । व्रिविघ घन्दों में मौतिरत्न इस प्रकार जड़े हुए हैं क्लि काब्य-मघुरिसा पद-पद पर टपकती है और उसका चास्वाद लेते ही बनता है। भर्ताहरि की सूक्तियाँ लोकोक्कियों के रूप में प्रचलित हैं । यया--शोले वर भूषणस!“मूर्सस्य नास्प्यौपधम ।? 'सत्सड्ृतिः




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