कसाय पाहुडं भाग ५ | Kasaya Pahudam Bhag 5

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Kasaya Pahudam Anubhag Vihatti Bhag-5 by गुनाधराचार्य - Gunadharacharya

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about गुनाधराचार्य - Gunadharacharya

Add Infomation AboutGunadharacharya

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
विषय-परिचय प्रस्तुत अधिकारका नाम अजनुभागविभक्ति है। अनुभाग फलदानशक्तिकों फहते हैं। यह दो प्रकारका है--बन्धके समय जो अलुभाग प्राप्त होता है एक घह् और बन्धके बाद ट्वितीयादि समयोंमें जो असुभाग रहता है एक वह। वन्धके समय प्राप्त होनेवाले अजुभागका विचार महावन्धमें किया है। सात्र उसका यहाँ अधिकार नहीं है। यह्दाँ वो ऐसे श्रनुभागका विचार किया गया है जो सत्ताफे रूपमें बन्‍्ध समयसे क्षेकर अवस्थित रहता है । घह बन्धकालमें जितना प्राप्त हुआ है उतना भी हो सकता है और क्रियाविशेषके कारण अन्यप्रकार भी हो सकता है । भोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ अ्रद्टाईस हैं । एकबार उत्तर भेदोंका आश्रय लिए बिना और दूसरी वार इनका आश्रय लेकर प्रस्तुत अ्रधिकारमें शजुभागका सांगोपाग विचार किया गया है, इसल्निए इसका अजुभागविभक्ति नाम सार्थक है । तदनुसार इस अधि- कारके दो भेद हैं-मूलप्रकृतिश्ननुभागविभक्ति और॑ उत्तरप्रकृतिश्रजुभागविभक्ति । उसमें भी घूर्णिकार आचार्य यतिबृपभने मूलग्रकृति अजनुभागविभक्तिकी सूचनामान्न की है। वीरसेनस्वामीने उसका विशेष व्याख्यान उद्चारणाबृत्तिके अनुसार तेईेस अजुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किया है। वे पेहेंस अजुयोगद्वार ये हैं -- संज्ञा, सर्वानुमागविभक्ति, नोसर्वानुमागविभक्ति, उस्क्ृष्टनुभागविभक्ति, श्रजुस्कृशनुभागविभक्ति, जघन्यानुभागविभक्ति, अजघन्याजुभागविभक्ति, सादिश्नजुभागविभक्ति, अनादिश्जुभागविभक्ति, भू घानु- भागविभक्ति, अपभ्र्‌ वाजुभागविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काज्, अन्तर, नानाजीवॉकी अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पशन, फाल, अन्तर, भाव और अरपवहुत्व । मूलप्रकृतिधलुमाग- विभक्ति एक है, ह्सक्षिए उसका विचार करते समय ससिकर्ष अन्लुगोगद्वार सम्भघ नहीं है । सज्ञा--धातिसज्ञा भौर स्थानसज्ञा । जीवके अजुजीबी गुणोंका घाव करनेवाल्ा होनेसे मोहनीय- कर्मकी घातिसंज्ञा है। उसमें भी यद्द दो प्रफारकी है--सर्वधाति और देशधाति । अपनेसे सम्बन्ध रखनेवाले जीवगुणका जो पूरी तरहसे घात करता है उसे सर्वधाति कहते हैं झौर जो पूरी वरहसे घात करनेमें समर्थ न होकर एकदेश घात करता है उसे देशघाति कहते हैं । यहाँ मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अलुभाग सर्वधाति ही होता है, क्योंकि उसका उत्कृष्ट सक्लिष्ट परिणामोंसे सक्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव यन्ध करता है। तथा अलुस्क्ृष्ट अनुभाग सवंघाति और देशवाति दोनों प्रकारका होता है क्‍योंकि उसमें जघन्य झजुभाग भी सम्मिल्षित है। जघन्य अजुभाग देशघाति होता है, क्योंकि इसमें एकस्थानिक अजु- भागकी उपलब्धि होती है और अजघन्य झनुसाग देशधाति और सर्वधाति दोनों प्रकारका द्वोता है, क्योंकि इसमें एकस्थानिकसे लेकर चतु'स्थानिक पर्यन्त चारों प्रकारका अनु भाग उपलव्ध होता है । कुल प्मुभाग चार प्रकारका होता है- एकस्थानिक, ट्विस्थानिक, प्रिस्थानिक और धत्तु'स्थानिक । जहाँ केवल लतारूप अजुसाग होता है उसकी एकस्थानिक सज्ञा है। जहाँ लता और धारुरूप अनुभाग होता है उसकी द्विस्थानिक संज्ञा है। जद्दों लता, दार और झस्थिरूप अज्ुभाग होता है उसकी शस्रिस्थानिक सज्षा है और जहाँ लता, दारु, अस्थि और शैलरूप अनुभाग होता है उसकी घचतुःस्थानिक सज्ञा है । इस प्रकार स्थानसंज्ञाफे चार भेद हैं । यह इतना विशेष समर लेना चाहिए कि उत्तर अनुभागमें पूवे प्रनुभाग गर्मित सान कर भी ये हविस्थानिक आदि सज्ञाएँ ज्यवह्षत होती हैं। यद्यपि लता, दारु, भ्स्थि और शैल ये उपमाएँ समानकपायके लिए दी जाती हैं, क्योंकि उरारोत्तर इस प्रकारकी कठोरताका साव उसमें सम्भव है. फिर भी यहाँ अलुभागकी उत्तरोत्तर सीम्रताकों देखकर ये संज्ञाएं आरोपित की गई हैं। हनमेंसे ज्तारूप झमसांग और दारुरूप अलुभागका अनन्तथों भाग देशघाति भाना गया है और शेष अनुभाग सर्वधाति माना गया है। सोहनीय कर्म घातियोंमें पठित है, इसलिए सज्ञाके ये भेद शेप घातिकर्मामें भी सम्भव




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now