विचार वैभव | Vichar Vaibhav

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Vichar Vaibhav by प्रभुनारायण गौड़ - Prabhu Narayan Gaur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) फे अनुकूल न होंगे भाव अपना छणिक दास दिया- कर विल्लीन हो जायगा | और यही दाल संचारी (व्य- मभिचारी) भावों फा भी होगा।यथे भी सम्कार फे प्रति कूल अपना फारये फरने में सर्वधा असमर्थ ठहरेंगे। ऐसी अवस्था में रस दशा घहुत दूर जा पढ़ती दे । बहुधा देखा जाता है कि एक ही दृश्य भालम्बन स्वरुप में दो व्यक्तियां के सामसे आता है और दोनों फे हृदय में भिन्न भिन्न प्रकार फी भावनाएँ उठती हैं । इसका फारण उस दृश्य विशेष की सस्कारानुफूल ता है। क्योंकि जिस भावना का वह आलम्पन हो सकता है उस भावना के अनुकूल सरकार जिस हृदय में अधिक प्रथल होंगे उस हृदय में इसे देसकर ज्ो भावना भादुरभू[ त होगी बह उस दूसरे हृदय में क्री नहीं हो सकती जिसमें इस (उपस्थित) आलम्बन से सम्बन्ध रसनेवाले 'रस” फे अछूरों फा संस्फार नहीं है। क्‍्योफि हृदय पट पर बन हुए सस्कार-जाल पर दृश्य प्रतिब्रिम्बन्योति अपन अनुपूल संस्कार फो ही जागरित करती है । दूसरे संस्कार फभी उसके ससमे से उत्तेजित नहीं दो पाते। अस्तु, नव चित्तवृत्तियाँ दी अनुकूल समय स्थिति पाकर रस (7८180) रूप धारण फर ढोती हैं.। इन्हीं चित्ततृत्तियों फे सुविकसित स्वरूप 'नय रस! फह- लाते हैं । यहाँ तक के विवेचन से पता चल चुकता हे कि (एस! हृदय का सस्फारमयता का मोहताज है। ओर “*भाव विभावों का। विभाव फे काव्याचार्यों ने आलब॒न ये द्ू




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