नवीन सन्यासी | Naveen Sanyashi

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Naveen Sanyashi by बाबू प्रभातकुमार मुखोपाध्याय - Babu Prabhatkumar Mukhopadhyay

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about बाबू प्रभातकुमार मुखोपाध्याय - Babu Prabhatkumar Mukhopadhyay

Add Infomation AboutBabu Prabhatkumar Mukhopadhyay

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
1 ६ तीसरा परिच्छेद । मभृ भी नरहा। मैने ता अच्छा साच कर हो एस काम में हाथ डाल्ला था। श्राप यडे लोग हैं। सोचा था, यट्ट विवाह होने से लडर की हफ में भ्रन्‍्छा हागा। किन्तु देखता हैँ, समय कैसा भ्रागया है कि अपने भाई का उपकार करने की चेष्टा करना भो भारी मूर्सता है । एक पडोसी रईस ने कद्दा--7हत दिनों से झुनता आता ह “विद्या ददाति विनयम |? इतना लिस पढकर मातीलाल पैसा इद्धत दो गया, यह बड हु स की नाव है । हम लोगों न सो घहुच नहीं लिया पढ़ा, यद् एफ प्रकार से अच्छा ही किया । अध्यापक ने फटा--अ्रसक्ष बात नहीं जानते शआराज कल स्कूल-कालेजां मे विद्या ता खूब पढाई जाती हैं, किनन्‍्ठु उनके साथ नीति की शिक्ता कुछ भी नहीं दी जाती । यह उसाका फल्त है। वीरेश्स्मट्टाय वेले--अच्छा ते। 'अ्रब हमको जाने की झआाज्ञा दोजिए | सापीकान्त से कंद्दा--बेर पहुव हो गई । स्सान सेजन करके जाते ते अच्छा द्वावा । 'ज्षमा फोजिए, अब यहाँ घडो भर भी ठहरने फो जी नहीं चाहता । बडो हो छज्जा मालूम होती है । हम आपको कुछ देप नहीं दते--सय हमारे भाग्य का दाप है | स्टेशन के समोप हमार एक मित्र हैं, वही जाकर स्नान भेजन करेंगे । ' रे. फीचवान फराँगया रत




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now