सुनहले शैवाल | Sunhale Shaival
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
106
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नाता-रिव्ता
तुम सतत
चिरन्तन छिने जाते हुए
क्षण का सुख हो--
(इसी मे उस सुख की अलौकिकता है )
भाषा की पकड में से फिसली जाती हुई भावना वा अथ
(वही तो अर्थ सनातन है)
बह सोने की कनी जो इस अजलि-भर रेत मे थी जो
धो कर अलग करने मे
मुट्ठियों से फिसछ कर नदी मे बह गयी---
(उसी अकाल, अकूल नदी मे जिसमे से फिर अजलि भरेगी
जौर फिर सोने की कनो फिसल कर बह जायगी) !
तुम सदा से
वह गान हो जिसकी टेक-मर
गाने से रह गयी।
मेरी वह फूस की मडिया जिस का छप्पर तो
हवा के झोको के लिए रह गया
पर दीवारें सब बेमोसम की वर्षा मे बह गयी
यही सब हमारा नाता-रिश्ता है--इसी मे मैं हूँ और तुम हो
और इतनी ही बात हूँ जो बार-बार कही गयी
और हर बार कही जाने मे ही कही जाने से रह गयी !
तो यो, इस लिए
यही अकेले में
बिना शब्दो के
मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गू जने दो
२४५७ सुनहले शेवाल
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