राजर्षि | Rajarshi

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Rajarshi by रवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravindranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छठा परिच्छेद । २५ रक्तघारा उसके विशाल खप्पर में आकर गिरती है। मैंने यदि उस धारा में रक्त की एक और वूँद मिला दी तो क्‍या अनुचित किया ? किसी न किसी समय ते अपनी बलि को वह लेती ही है। मैं ते उसके बीच एक निमित्त-मात्र हुश्रा हूँ । तन जयसिह प्रतिमा की ओर देस कर कहने लगे--क्या इसी लिए सब लोग तुमझा माँ कह फर पुकारते हैं। द्वाय, छुम्हारा हृदय ऐसा कठोर है । तुमने ते! राक्षसियो फा भी माच कर दिया । क्‍या सारे ससार का लोहू निचेड कर पेट भरने दी फे लिए तुम प्रपनी चभ्वल जीभ को बाहर निकाले रहती दे ? तुमने ते स्नेह, प्रेम,ममता, सौन्दर्य्य ँ्लौर धर्म सभी पर पानी फेर दिया । तुम्हे तो बस बेहद लो।हू की प्यास मिटानी है । तुम्दारा द्वी पेट भरने के लिए मलुप्य मनुप्य के गले पर छुरी फेरेगा, भाई भाई का सन करेगा, बाप बेटे परस्पर मार-क्राट करेंगे । निष्ठुरे, सचमुच यदि तुम्हारी यद्दी इच्छा है ते मेघ पानी के बदले लोहू क्‍यों नहीं वरसाता ? जीवन- प्रदात्नी दयारूपिणी नदी रक्त का प्रवादद लेकर समुद्र में क्‍यों नहीं प्रवेश करती ? तब इस ससार में एक मात्र द्विसा, विद्वेप, महामारी आऔर विभीपिफा फा साम्राज्य क्यों नहीं हुआ नहीं, नहीं, भां ! तुम प्रयक्ष द्वेज़र जयाय दे, यद्द उपदेश मिथ्या दै।यद्द शात्ष असल ह।मेरीसां को माँन कद कर लोग सनन्‍्तान फा शोणित पीनेयाल्लो राक्यसी कद्दे--यह बात मुझसे नहीं सद्दी जायगी--इतना कहते फहते जयसिद्द




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