अवधूतगीता भाषा टीका सहिता | Avadhutgita Bhasha Teeka Sahita

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Avadhutgita Bhasha Teeka Sahita by स्वामी परमानन्द जी - Swami Parmanand Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६) अवधूतगीता 1 मिलता है इसवास्ते यह जगव्‌ नात्ति और अल्लि दोनों रूपोंसे नहीं कहा जाता है । इसी वास्ते विस्मयकी तरद अंथात्‌ आश्वयकी तरह यह जगतद्दमकी प्रतीत दोता है अथाव्‌ विना हुए मृगतृष्णाकी तरद अतीत होता है ॥ 9 ॥ ननु, दत्तत्रेयजीका पिद्धान्त क्या हैः- वेदान्तसारसवैस्व॑ ज्ञानविज्ञाममेव च । अहमात्मा निराकारः सर्वव्यापी स्वभावतः ॥ ५ ॥ पदच्छेद । वेदान्तसासव॑स्वम्‌, ज्ञानविज्ञानघ,एव, च, अहम, आत्मा, निराकार॥, सर्वव्यापी, स्वभावतः ॥ * पदाथे । न अहम्‌-मैं दी सर्वैस्वम्‌ भहैतहै पहीहमारा | आत्मा-आत्मा हैँ और : सर्वस्व हि थे एयर विश्वय करके निराकारः-निराकार भी हूँ ज्ञानवि-) स्यदही हमारा ज्ञान स्वभावत+-स्वमावते ही मैं झानम्‌ | विज्ञान भी है सर्वव्यापी-सर्वन्यापी भी हूं भावार्थ; 1 दत्तात्रेयजी कहते हैं-वेदान्तका सारभूत जो अह्लैत अह्मका चिन्तन है चही हमारा सर्वस्व है और वही हमारा श्ञान विज्ञान भी है अर्थात्‌ परोक्ष तथा अपरोक्ष ज्ञान भी हमारा वही है भोर मै ही व्यापकरूप आत्मा हूँ ओर निराकार भी हूँ। अणु, दस्व, मध्यम और दी आदि आकारोंसि रहित हैं और स्वमावसे ही में सवेव्यापी भी हूँ ॥ ५॥ यो वे सर्वात्मको देवी निष्कलो गगनोपमः । स्वभावनिर्मलः शुद्ध स्‌ एवाई न सैशयः ॥ ६ ॥ है पदच्छेदूः । य वै, सवोत्मकः, देव, निष्कछ:, गगनोपमः, स्वभाव निर्मठ), शुद्ध, सः, एव अहम, ने, सेशयः




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