प्रशस्ति संग्रह | Prashsti - Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९६ ) रचनायें लिखी हैँ । - के ॒ ७६--वेवेन््कीसि-- ये भट्टारक सकलकीत्ति की शिष्य परम्परा में होने वाले भट्टारक पद्मनन्दि के शेष्य थे । इन्होंने सूरत निवासी संघपति श्री ज्षेमजी के अनुरोध से महेश्वरनगर में अ्द्युम्नप्रवन्ध को संबत्‌ १७००२ में समाप्त किया था। प्रवन्ध की भाषा साधारण है । * हु + री ७७--दिलाराम-- इनके पूर्दज खडेले के रहने वाले थे । वहां से बूदी नरेश के अनुरोध से बू दी आयकर रहने लगे थे | इनका-गोत्र पाटएणी था। कवि ने बू'दी नगर तथो वहां के राजघश की खूब प्रशंसा लिखी है | इसके अतिरिक्त अपने बंश का भी अन्छा परिचय लिखा है । इन्होंने दिलारामबिलास भर अरे: ह्वादशी ये दो रचनाये लिखी हैँ । कब ने दिलारामविलास को संवत्‌ १७६८ में समाप्त किया था। इनकी वर्णन श्री अच्छी है। ७८--धमैदास-- कवि घारहसेनी ( हादशश्रेणी ) जाति में उत्पन्न हुये थे । इनके पूर्चन अपने “आन्त में बहुत ही अतिष्ित थे । इनके पिता का नाम राम और माता का नाम शिवी था। कबि ने धर्मोपदेशभावकाचार को १४७८ में समाप्त किया था | रचना की भाषा बड़ी सुन्दर है। इसमें जैन धर्म के मुख्य रे सिद्धास्तों को बड़ी ही अच्छी तरह से समझाया गया है । ७८, नथमल विलाला-- ये मूल निवासी आगरे के ये किन्तु घाद में भरतपुर में और अन्त में हीरापुर आकर रहने लगे थे | इनके पिता के नाम शोभावन्द था । इनने सिद्धान्तसारदीपक की रचना भरतपुर में सुखराम की सहायता से की थी और भफ़ामर की भाषा हीरापुर में पं० लालचन्द जी की सहायता से की थी। इनके अतिरिक्त जिनगुणविल्ास, नागकुमारचरित्र, जीवंधरचरित्र, जम्वूस्वामीचरित्र आदि भी आपकी ही कृतियां हैं । ७५, नरेन्द्रकीति-- भद्दाक शुभचन्द् के प्रशिप्य एवं सुमतिकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने नेमीश्वर चन्द्रायण लिखा है. जो एक साधारण कृति है । ८०, नेभिचन्द-- ये भद्टारक जास्कीत्ति के शिष्य थे। आमेर इनका निवास स्थान था। सबत १७९३ में इन्होंने हरिवंशपुराण की रचना की थी | कवि ने आमेर का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। कवि के छोटे भाई का नाम झंगड्ट भा । इनका गोत्र रेंठी था। कषि के रूपचन्द, हू गएसी, लच्भीदास, दोदराज आदि शिष्य थे -। ८१, प्रभाचन्द्र मुनि-- इल्दोंने अपने को मुनि धर्मचन्द्र का शिष्य लिखा है। अभांचन्द्र ने तत्त्वाथसूत्र की हिन्दी टीका लिखी है. । इनके समय के सम्बन्ध में विशेष ज्ञात नहीं हो सका है । तत्त्वाथेसूत्र भाषा की एक प्रति संबत्‌ १८०३ की लिखी हुई शाल््र भण्बार में है ।




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