ध्यानशतक तथा ध्यानस्थव | Dhyanshatak Tatha Dhyanstav

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Dhyanshatak Tatha Dhyanstav by पं बालचन्द्रजी शास्री - Pt Balchandraji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना १७ रौद्रध्यान की सम्भावना सर्वत्र पाचवें गुणस्थान तक बतलायी गई है । धम्येध्यान --तत्त्वार्थसूत्र मे भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के श्रनुसार इसका सद्भाव श्रप्रमत्त, उपशान्त- कपाय और क्षीणकपाय के बतलाया गया है। ध्यानशतक से भी लगभग यही अभिप्राय प्रगट किया गया है। टीकाकार हरिभद्र सूरि के स्पष्टीकरण से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हे उसका सदभाव उपशम श्रेणि तथा क्षपकर्नेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सुक्ष्मसाम्पराय ग्रुणस्थानों मे भी अ्रभीष्ट है। सर्वार्थसिद्धि, तत््वाथंवातिक और अमितगतिश्रावकाचार मे उसका सद्भाव श्रविरत, देशविरत, प्रमत्तयत भौर शअ्रप्रमत्ततयत इन चार गुणस्थानो में स्वीकार किया गया है। घवलाकार उसे भ्रसयतसम्यग्दुष्टि से लेकर सुक्ष्मसाम्पराय तक सात ग्रुणस्थानों मे स्वीकार करते हैं । हरिवष्पुराण मे उसके स्वामी के सम्बन्ध में 'अप्रमत्तभूमिक' इतना मात्र सकेत किया गया है। उससे यही अभिप्राय निकाला जा सकता है कि सम्भवत हरिवशपुराणकार को उप्तका अस्तित्व सर्वार्थ- सिद्धि श्रादि के समान अभ्रसयतसम्यरदृष्टि से लेकर अप्रमत्ततयत तक चार गुणस्थानो मे श्रभिप्रेत है । आदिपुराण मे उसे श्रागमपरम्परा के भ्ननुसार सम्यर्दृष्टियो, सयतासयतोो और प्रमत्तसयतों मे स्वीकार कर उसका परम प्रकर्ष अ्रप्रमत्तो से माना गया है। यही अ्रभिप्राय तत्त्वानुशासनकार का भी रहा है । ज्ञानाणंव मे श्रप्रमत्त और प्रभत्त ये दो मुनि उसके स्वामी माने गये है। मतान्तर से वहा उसका भ्रस्तित्व सम्यर्दृष्टि श्रादि चार ग्रुणस्थानो में प्रगट किया गया है । घ्यानस्तव मे भ्रसयतसम्यर्दुष्टि श्रादि चार गरुणस्थानों मे उसके भ्रस्तित्व को सूचित करते हुए सम्भवत यह श्रभिप्राय प्रगट किया गया है कि प्रकृत घधर्म्यध्यान ही श्रतिशय विशुद्धि को प्राप्त होकर शुक्लध्यानरूपता को प्राप्त होता हुआ्ना दोनो श्रेणियों मे भी रहता है। इस प्रकार से ध्यानस्तवकार सम्भवत. प्रकृत धर्म्यध्यान को अ्रसयतसम्पर्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषाय व क्षीणकपाय तक स्वीकार करते हैं, श्रथवा शुक्लष्यान को वे दोनों श्रेणियो के भ्रपूवंकरणादि ग्रुणस्थानों मे स्वीकार करते है। प्रसग प्राप्त इलोक १६ का जो पदर्विन्यास है उससे ग्रच्यकार का भ्रभिप्राय सहसा चिदित नही होता है । शुकलध्यान---सर्वार्थ सिद्धिसम्मत सुत्रपाठ के अनुसार तत्त्वाथंसूत्र मे पर्व के दो शुब्लध्यान श्रुत- केवली के भौर श्रन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के स्वीकार किये गये हैं। स्वार्थ सिद्धि भौर तत्त्वार्थवाततिक के स्पष्टीकरण के अनुसार उपशमक और क्षपक इन दोनो श्रेणियो मे--श्रपुवंकरण, श्रनिवृत्तिकरण, सुक्ष्म- साम्पराय और उपशान्तमोह इन चार उपणामको के तथा श्रपुवंकरण, अनिवृत्तिकरण, सुक्ष्मसाम्थराय झौर क्षीणमोह इन चार क्षपको के---क्रम से वे पुर्व के दो शुक्लध्यान होते है । तत्त्वार्थ भाष्यसस्मत सूत्रपाठ के अ्रनुसार तत्त्वार्थसृत्र मे पूर्व के दो शुक्लध्यान धर्मध्यान के साथ उप- शान्तकपाय श्रौर क्षीणकषाय के तथा अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के निर्दिष्ट किये गये हैं। यही भ्रभिप्राय ध्यानश्तककार का भी रहा दिखता है । ' घवलाकार के अभिप्रायानुसार प्रथम शुक्लध्यान उपशान्तकषाय के, द्वितीय क्षीणकषाय के, तृतीय सूक्ष्म काययोग मे वर्तमान सयोग केवरली के श्रौर चतुर्थ शैलेश्य श्रवस्था मे अयोग केवली के होता है। भादि- पुराणकार भ्रौर ज्ञानार्णव के कर्ता का भी यही अ्रभिमत रहा है । हरिवद्पुराणकार के अ्रभिमतानुसार प्रथम शुक्लघ्यान दोनों श्रेणियों के गुणस्थानों मे, द्वितीय सम्भवत' बादर योगो के निरोध होने तक सयोग केवली के, तृतीय सूक्ष्म काययोग में वर्तमान सयोग केवली के भौर चतुर्थ श्रयोगी जिनके होता है । ' बुहदुद्वव्यसग्रह टीका के अनुसार प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणि के श्रपूवंकरण उपद्यमक, अनि- वृत्ति उपशमक,, सुक्ष्ससास्पराय उपशमक और उपश्ान्तकषाय पर्यन्च चार ग्रुणस्थानों मे तथा क्षपक-




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