पंडितप्रवर आशाधार | Panditpravar Aashadhar (1988) Ac 6098

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Panditpravar Aashadhar (1988) Ac 6098 by पं बालचन्द्रजी शास्री - Pt Balchandraji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ पष्डितप्रवर आधार स्यादवादकी आधारभूत 'सप्तभंगो' का समथैन किया है । इससे उनकी अनेकान्तवादपर निष्ठा निश्चित है। इसका तात्पर्य यह है कि उन्होंने लोकहितेषितासे प्रेरित होकर अप्रबद्ध मुमुक्षु जीवोंके प्रबोधनाध यथा- योग्य प्रथमत: छह द्रव्यो, सात तत्त्वो और नो पदार्थोकी तथा व्यवहार चारित्र या संयमकी प्ररूपणा की है । यह सब करते हुए भी उन्होंने जहां तहां प्रसंगानुसार यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रक़ृत कथन व्यवहारकी प्रधानतासे किया जा. रहा है, जो तत्त्वावबोधके लिये आवश्यक है । किन्तु मुमुक्षुक। लक्ष्य निर्बाध शाइवतिक (अविनश्वर) सुखकी ओर रहना चाहिये । वह सकेयथा राग-द्वेषसे मुक्त हो जाने पर ही सम्भव है । दसके लिये अशुभोपयोगको तो सर्वेदा छोड़ना ही चाहिये, साथ ही यथावसर स्वर्गीय सुखके कारणभूत पुण्यबन्धक अरहन्तभर्क्ति आदिखूप शुभोपयोगका भी परित्याग कर देना आवश्यक है, क्योंकि मोक्षसुखकी प्राप्तिमे वह भी बाधक रहता है । मोक्षसुख तो शुद्धोपयोगपर निरंर है । इस प्रकार प्रबुद्ध-अप्रबुद्ध जीवाका विचार करते हुए उन्होंने तदनुरूप ही तत्त्वका व्याख्यान किया है । आ० कुन्दकुन्दने जिन प्रचुर ग्रन्थोकी रचना की है, उनमे बहुतसे प्रकाशित भी हों चुके है । आशाभरने अपने “धर्मामृत' आदि प्रन्थों व उनकी स्वोपज्ञ टीकाओकी रचनाम जिनका उपयोग किया है उनमें कुछ इस प्रकार हे - पचास्तिकाय--आ ० कुन्दकुन्द द्वारा इसमें प्रथमतः कालको छोड़ विशेषरूपसे जीव-पुदूगलादि पाव अस्तिकाय द्रव्योका विचार किया गया है। उन पांच अस्तिकायोका प्ररूपक हानेस उसका 'पचास्तिकाय' यह साथंक नाम रहा हैं। आगे यथापध्रसंग उन्होंने छटे काल द्रव्यका भी विवचन किया है। यह पहले कहा जा चुका है कि आ-० कुन्दकुन्दने जो तत्त्वका विचार किया है वह यथाप्रसंग निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोमे एक किसीको प्रवान ओर दूसरेको गौण रखकर किया है, उपेक्षा १. उदाहरणके रूपम पथास्तिकायकों यह गाथा इृष्टव्य हैँं-- एवं पबयणसारं पंचत्थियसगह वियाणित्ता । जो मुयदि राय-दोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्ख ॥। १०३ । २. देक्िये, प्रव० सा० गाथा १, ११-१४ तथा भाग है, ५-५०,




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