महापुरुषों की खोज में | Mahapurusho Ki Khoj Me

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Mahapurusho Ki Khoj Me by बनारसी दास चतुर्वेदी - Banarasi Das Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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से तो पत्र-व्यवहीर करना आवश्यक ही थों हि _ नँकिमैं सन्‌ 1912 में ही हिन्दी में लेख लिखने लगा था और 1919 से अँग्रेज़ी में भी, इसलिए इरं क्षेत्रों के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कार्यकर्ताओं से भी मेरा परिचय हो गया था । साहित्य-सम्मेलन के आठवें अधिवेदान में, जो इन्दौर में हुआ था, मैं साहित्य-विभाग का मंत्री था और श्री सम्पूर्णानन्द जी उसके प्रधान । उन दिनों हम दोनों राजकुमार कॉलेज, इन्दौर, में अध्यापक थे । 1918 के उस अधिवेदान के कुछ महीने पूर्व मैं प्रयाग की यात्रा करके श्रद्धेय टण्डन जी के दर्शन किये थे और उन्हीं दिनों पूज्य महावीर प्रसाद जी द्विवेदी वें भी । तभी मैं श्रद्धेस राघधाचरण जी गोस्वामी तथा श्री किशोरीलाल गोस्वामी जी की सेवा में उपस्थित हुआ था । सम्मेलन के बम्बई, कानपुर, भरतपुर, बुन्दावन, गोरखपुर, मुजफ्फरपुर और कलकत्ते के अधिवेदाने में मैं बामिल हुआ था, इसलिए हिन्दी-क्षेत्र के कार्यकर्ताओं से मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया । यहाँ एक बात अनुभव से कह सकता हूँ कि अँग्रेज़ी में लेख लिखने के कारण मेरा परिचय अनेक अंग्रेज पत्रकारों से भी हो सका था और संव॑श्री चिन्तामणि जी, कृष्णा राम मेहता, विदवनाथ प्रसाद, सदाशिव गोवि वन्ने, कीदण्ड राव, सैयद अब्दुल्ला बरेलवी, जी ०ए० नटेशन और राणा जंगबहादुरसिंह इत्यादि के सम्पर्क में आ। सका । कलकत्ते में मुझे सुप्रसिद्ध विद्वान्‌ सुनीति कुमार चटर्जी के सम्पर्क में आने का मौका मिला और वहीं मैंने अमेरिकन लेखिका पर्ल बक के दर्शन किये थे । चँकि मैंने ऐसे विषयों को अपनाया था जो विवादग्रस्त राजनीति से दूर थे; जैसे--प्रवासी भारतीय, दाहीदों का श्राद्ध और साहित्य सेवियों की कीति-रक्षा ; इसलिए भिन्न-भिन्न दलों के कार्यकर्ताओं और नेताओं के सम्पर्क में आने का मुझे मौका मिला । कई अंग्रेज़ बहूनों के सम्पक में भी मैं आ सका । मिस अगाथा हेरीसन, मिस माजंरी साइक्स, मिस म्यूरिएल लीस्टर और मिस सेफड से भी मेरा परिचय हुआ । अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार लुई फिशर से मेरा वर्षों तक सम्बन्ध रहा और सुप्रसिद्ध रूसी विद्वान सर्वश्री चैलिशेव, बारान्निकोव और चर्नीशोव से मेरा अब भी सम्बन्ध है । किसी भी पत्रकार के लिए इस प्रकार के सम्बन्ध अनिवार्य हैं । जिनके सम्पर्क में मैं आया उनके बारे में बहुत कुछ लिखने का अवसर भी मुझे मिला । हिन्दी और उई में मैं कोई भेद नहीं करता । मैं स्व० मौलवी अब्दुल हक़ साहब को आचायं महावीर प्रसाद द्विवेदी की भाँति पूज्य मानता था । “ज़माना' के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम के प्रति मेरी विद्षेष श्रद्धा थी । मेरी महत्व की खोज अब भी जारी है और यावज्जीवन जारी रहेगी । सन्‌ 1918 एक ऐसा वर्ष था जिसने मेरे जीवन को एक और खास मोड़ दिया । सन्‌ 1918 में ही मैंने महात्मा जी के दशंन प्रथम बार किये और उनके साथ ही उन प्रोफेसर गीडीज़ के भी जो जनपदीय का के प्रवतैक थे और नगर निर्माण कला के विशेषज्ञ भी । उसी वर्ष मुझे अकस्मात्‌ इन्दौर छावनी की विक्टो रिया लायब्रेरी में प्रिंस क्रोपाटकित का आत्म-चरित दीख पड़ा--'मेमोयसं ऑफ़ ए रिवोल्यूदनिस्ट' (एक क्रान्ति- कारी के संस्मरण ) । मैं तभी से प्रिंस क्रोपाटकिन का भक्त बन गया । इकतालीस वर्ष बाद सन्‌ 1959 में रूस की यात्रा करके मैंने उनकी समाधि पर पुष्प चढ़ाए। सन्‌ 1918 में ही मैंने कलकत्ते में दीनबन्धु ऐण्ड्ू ज के दर्शन प्रथम बार किये और तत्पदचात्‌ गुरुदेव कवीन्द्र श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के छान्ति-निकेतन में मुझे संस्कृत के महाविद्वान्‌ शास्त्री महादय विधशेखर भट्टाचायं और सन्त कवियों के विशेषज्ञ आचायें क्षितिमोहन सेन के दर्शन हुए थे । सम्पादकाचायें पं० अम्बिका प्रसाद जी वाजपेयी के दशन भी मुझे उन्हीं दिनों हुए थे । महापुरुषों की खोज में / 11




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