पर्दा उठने से पहले | Parda Uthne Se Pehle
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
125 MB
कुल पष्ठ :
122
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about राजेन्द्र कुमार शर्मा - Rajendra Kumar Sharma
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उघार देवता १७
ग्वालिन-यहाँ तो तुम लोग खूब लूट मचाग्रो । मैं कहूँ जाकेट में
४ आने का धागा लगता होगा और कँची कौन-सी जाकेट काटने में
घिम जावे ।
दर्जो--कैंची तो नहीं घिसती पर सारा दिन बठे-ब्ठे बमर टेढ़ी हो
जाती है। १५० रु० महीता दुकान का किराया और ४०० रु०
कारीगरों को देता हूँ ।
पण्डित--फिर भी जाकेट के ८ रु० तो बहुत हैं ।
बनिया--भई, तुम्हारा काम सबसे वढ़िया है। घाटे का कोई मत-
लव ही नहीं। कोई नुक्स रह भी गया तो कह दिया ग्राजकल का
फंशन है !
पण्डित--यह तो सत्य है। संसार के सारे फैशन दर्जियों की गल-
तियों से ही निकलते हैं ।
दर्जो--अमा, यह क्या कह रहे हो ? हम कपड़ा एक नम्बर सीते हैं ।
नापसन्द होने पर दाम वापस करने की शर्त करें ।
बनिया--ये सब कहने की वातें हैं ।
पण्डित--सूट के तो ४०-५० लेते होगे ।
दर्जी--मैंने कहा न ५० र० लेता हूँ ।
खालिन--५० र० ! कलयुग है कलयुग !
दर्जो--मैं श्रपनी मेहनत के पैसे लेता हूँ, मेहनत के ! तुम्हारी तरह
नहीं कि दूध में एक लोटा पानी मिलाया और १० आने खरे कर लिए।
खालिन--मुँह संभाल के वात कर ! मैं सब जानूं तुम लोग कपड़ा
चोरी करते हो । चोट्ट कहीं के !
वर्जो--क्या कह रही है ? हम तेरे ज॑से गंवार के कपड़े नहीं सीते
नहीं तो एक दिन में पागल हो जाएं ! हम बड़े आ्रादमियों के कपड़े
सीते हैं ।
रखालिन--श्र बड़े ग्रादमियों की चोरी भी बड़ी होवे। मैं देख
शहर की श्रोरतन का श्राधा कपड़ा तुम खा जाग्रो ! ऐसा जम्पर सीवें कि
User Reviews
No Reviews | Add Yours...