पर्दा उठने से पहले | Parda Uthne Se Pehle

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Parda Uthne Se Pehle by राजेन्द्र कुमार शर्मा - Rajendra Kumar Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उघार देवता १७ ग्वालिन-यहाँ तो तुम लोग खूब लूट मचाग्रो । मैं कहूँ जाकेट में ४ आने का धागा लगता होगा और कँची कौन-सी जाकेट काटने में घिम जावे । दर्जो--कैंची तो नहीं घिसती पर सारा दिन बठे-ब्ठे बमर टेढ़ी हो जाती है। १५० रु० महीता दुकान का किराया और ४०० रु० कारीगरों को देता हूँ । पण्डित--फिर भी जाकेट के ८ रु० तो बहुत हैं । बनिया--भई, तुम्हारा काम सबसे वढ़िया है। घाटे का कोई मत- लव ही नहीं। कोई नुक्स रह भी गया तो कह दिया ग्राजकल का फंशन है ! पण्डित--यह तो सत्य है। संसार के सारे फैशन दर्जियों की गल- तियों से ही निकलते हैं । दर्जो--अमा, यह क्‍या कह रहे हो ? हम कपड़ा एक नम्बर सीते हैं । नापसन्द होने पर दाम वापस करने की शर्त करें । बनिया--ये सब कहने की वातें हैं । पण्डित--सूट के तो ४०-५० लेते होगे । दर्जी--मैंने कहा न ५० र० लेता हूँ । खालिन--५० र० ! कलयुग है कलयुग ! दर्जो--मैं श्रपनी मेहनत के पैसे लेता हूँ, मेहनत के ! तुम्हारी तरह नहीं कि दूध में एक लोटा पानी मिलाया और १० आने खरे कर लिए। खालिन--मुँह संभाल के वात कर ! मैं सब जानूं तुम लोग कपड़ा चोरी करते हो । चोट्ट कहीं के ! वर्जो--क्या कह रही है ? हम तेरे ज॑से गंवार के कपड़े नहीं सीते नहीं तो एक दिन में पागल हो जाएं ! हम बड़े आ्रादमियों के कपड़े सीते हैं । रखालिन--श्र बड़े ग्रादमियों की चोरी भी बड़ी होवे। मैं देख शहर की श्रोरतन का श्राधा कपड़ा तुम खा जाग्रो ! ऐसा जम्पर सीवें कि




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