कालिदास ग्रन्थावली | Kalidas Granthawali

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Kalidas Granthawali by रामतेज शास्त्री - Ramtej Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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#% द्वितीय सर्ग & १७ इति प्रगल्भ पुरुषाधिराजों मृगाधिराजस्य बचो निशम्य। प्रत्याहतास्त्रों गिरिशप्रभावादात्मन्यवज्ञा शिथिलीचकार | ४१॥ प्रत्यव्रवीज्चैनमिषुप्रयोगे. तत्पूर्वभद्ठे. वितथप्रयत्त । जडीकुतस्त्यम्बकवीक्षणेन वज्ध मुमुक्षन्निव वज़पाणि ॥४२॥ सरुद्धचेष्टस्य मृग्रेन्द्र! काम हास्य वचस्तद्यदह विवक्षु । अन्तर्गत प्राणभृता हि बेद सर्व भवान्भावमतो5भिधास्थे ॥ ४३॥ मान्य स में स्थावरजज्भमाना सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतु । गुरोरपीद धनमाहितानने्नश्यत्पुरस्तादनुपेक्षणीयम्‌ | ४४ ॥ स त्व मदीयेन शरीखूत्ति देहेन निर्वर्तयितु प्रसीद। दिनावसानोत्सुकबालवत्सा विसृज्यता धेनुरिय महर्षे ॥४५॥ अथान्धकार गिरिंगद्दराणा दष्टरामयूस़ैे शकलानि कुर्बन्‌। भूष स भूततेश्वरपार्श्ववर्ता किज््चिद्विहस्पार्थपति घमापे || ४६॥ एकातपत्र जगत प्रभुत्त नव वय कान्तमिद वपुश्च। अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन्विचारमूढ प्रतिभासि में त्वम्‌॥ ४७॥ भूतानुकम्पा तब चेदिय गौरेका भवेत्स्वस्तिमतो त्वदन्ते। जीवन्पुन शश्वदुपप्लवेभ्य प्रजा प्रजानाथ पितेब पासि ॥ ४८॥ अथैकधेनोरपराधचण्डाद्‌ गुरो कृशानुप्रतिमाद्विभेषि। शक्यो5स्प मन्युर्भवता विनेतु गा कोटिश स्पर्शयता घटोष्नी ॥४९॥ की अकीर्ति नहीं होती | ४०॥ मिह की ऐसी ढिठाई भरी बाते सुनर्र जब राजा दिलीप को यह विश्वास हो गया कि 'शकरजी के प्रभाव से ही मैं असर नहीं चला सर! तब उनकी आत्मग्लानि कुछ कम हो गयी।| ४१॥ एक' समय इन्द्र ने शिवजी पर वज्ञ तान दिया थां। तब शिवजी ने उनकी ओर केवल देख भर दिया। बस, इतने ही से जैसे इन्द्र को काठ मार गया। आज वहीं दशा दिलीप की भो हुई। बाण चलाने में असमर्थ एवं हाथबँधे राजा दिलोप ने मिह मे कहा--॥ ४२॥ हे सिह ! हाथ बँध जाने के कारण मैं कुछ नहों कर सकता। इसलिए जो बुछ भी मैं कहँगा उसकी फ्िल्ली हो उडायो जायगी। फिर भी तुम सबके मन की बात जानते हो, इसीलिए मैं तुमसे कहता हूँ॥ ४३॥ जड-चेतन सभी प्राणियों के जन्मदाता, पालक, पोषक और सहारक शिवजी का मैं मम्मान करता हूँ, तथापि मैं अपने अग्निहोत्री गुद के इस गौरूपी धन को अपनो आंखों के आगे नष्ट होते नहों देख सकता ॥| ४४॥ अतएव तुम मुझे ही खाकर अपनी भूख मिटा लो और महर्षि वसष्ठ की इस गाय को छोड दो। क्योंकि इसका ननहा-सा बछड़ा सॉझ के समय इसकी राह देख रहा होगा।|४५॥ यह सुनकर शिवजी का सेवक सिह गुफा के अँधेरे में अपने दांत की चमक से उजाला करता हुआ तनिक हँसकर राजा से बोलछा--- || ४६॥ हे राजन्‌ | ऐसा लगता है कि तुममें यह सोचने की शक्ति भी नहों रह गयी है कि तुम्हे क्या करना चाहिए। क्योंकि एक साधारण गाय के पीछे तुम इतना बडा एफछत्र राज्य, यौवन और ऐसा सुन्दर शरोर छोडते को उद्यत हो गये हो ॥|४७॥ प्राणियों पर दया करने के विचार से हो यदि तुम ऐसा कर रहे हो तो भी देह-त्याग उचित नहीं है। क्योकि यदि तुम मेंगे भोजन घन जाते हो तो केवल एक गाय को ही रक्षा होगी, परन्तु यदि जीते रहोगे तो पिता के समान तुम अपनी सारी प्रजा की रक्षा कर सकोगे।| ४८॥ यदि एकमात्र इस गाय के स्वामी और अग् के समान तेजस्वों अपने गुरुजी से डरते हो तो. घड़े जैसे बड़े-बड़े थनोंवाली करोड़ों गायें देकर तुम उन्हे राजी कर सकते हो ॥४९ ॥ अभी तुम्हारे खेलने-खाने है का०




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