उद्धव शतक | Udhav Shatak

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Udhav Shatak by विजयेन्द्र स्नातक - Vijayendra Snatak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उद्धव ने श्रौदृष्ण की इस व्यादुल मन स्थिति कौ देखकर पहले तो सौचा कि इहे समया-बुझा कर शान्त किया जाय लेकिन जब उहें लगा कि श्रीकृष्ण के मानस पटल पर स्मृति का जो गहरा निशान बन गया है वह अमिट है । अत श्रीकृष्ण की बात सुनना और तदनुसार काय करने वी श्रेयस्कर है। श्री कृष्ण ने उद्धव से कहा, हे उद्धव ! तुम एक बार गोकुल जाकर मेरा सदेश गोषियों तक पहुचा दो । उसके बाद यदि कुछ और कहना चाहोगे तो मैं उसे अवश्य सुनुगा । इस समय तुम अपना ज्ञानोपदेश बद करो ओर सीधे गोकुल को प्रस्थान करो । उद्धव ने श्रीकृष्ण की बात य मानकर पहले अपने ज्ञान माय का मम समझाना चाहा और कहा वि ग्रीपियो का प्रम मिथ्या है, क्षण भगुर है, इस ससार मे केवल ' ब्रह्म ही सत्य है! पचभूतात्मक जगत्‌ में भेद बुद्धि रखना व्यध है| ब्रह्म ही समस्त चराचर जगत्‌ म॑ समान भाव से व्याप्त है। अत इस भौतिक प्रपच में नही पडना चाहिए । वेदा-त दशन का ज्ञान माग उद्धव ने बडी प्रखर प्रतिभा और विद्वता से श्रीक्षप्ण को समझाया वितु उहोंने उसे स्वीकार नही किया। उद्धव ने तो यहा तक कह दिया कि वे प्रजवासी विसी सुयोग की तलाश मे है, ये तुम्ह अपने कपट जाल मे फसाना चाहते हैं। गजराज वे उद्धार कर्ता होकर तुम्हे गज नही बनना चाहिए । जिस प्रकार गज कपठ जाल को न समझ कर जाल में फस जाता है, वैसे ही तुम्हे थे लोग फ्साना चाह रहे है। 'वारन कितेक तुम्हें, बारन वितैक करें, वारनउप्रारन हुँ वारन वनो नही । अपने ज्ञानी सखा उद्धव के वचन सुनकर श्रीहृष्ण का प्रेम प्रवाह शान्त मही हुआ घरन्‌ और तीब्रगति से उनके भीतर प्रेमाग्नि तीत्न होकर प्रज्वलित हो उठी । श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा-- मुझे शाततपूवक प्रेमाश्रु बहा लेने दो! मेरे हृदय का व्यथा भार प्रेमाश् बहाने से ही शा-त होगा। मेरे दग्ध अन्त करण को य आमू शीतल जल सीकर वा काम देंगे और मुझे मानसिक' शान्ति प्राप्त हीगी। है उद्धव ! तुम अपना ज्ञानोपदेश इस समय बद कर दो और कृपापुवक गोकुल चले जाओ | जब वहा से लौट कर बापस आओगे तब मैं तुम्हारा उपदेश ध्यानपूषक सुन लूगा। तुम्हारे उपदेश को मैं दाता द्वारा दिये गये दान के समान ग्रहण कछगा । भोषियों की चर्चा चलने और उनका ध्यान आते ही मेरा मन अधीर हो उठा है। जिस प्रकार पवन से उद्धेलित होकर धूल वायु मडल मे उडने लगता है, वसे ही गोपियों की चर्चा से मेरा धैर्य धूल बनकर उड़ गया है।' चेदना और स्मति जय मनोदशा से विह्नल होकर श्रीकृष्ण का कठ अवरुद्ध हो गया। उद्धव के हाथ जो सदेश भेजना चाहते थे, वह भी स्पष्टत' नही वह सके । नेन्नो से अथ्रु प्रवाह हो उठा और उन्हीं अश्वुओ मे कृष्ण का प्रेम सदेश भी व्यक्त हो गया । जब वेदना का अतिशय होता है, मूथ से शब्द मही निवलते, आश्वो से अविरल अश्रु प्रवाह जारी हो जाता है। र उद्धव शतक की कथा-वस्तु २७




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