कालिदास - ग्रंथावली | Kalidas Granthavali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- रहे + मे अपनी दुसरी रचना मेषदूत मे उन्हें वर्षा ऋतु के वर्णन मे जो सफ्छता मिली है वह ऋतुमहार में नही मिल सकी है। मेघटूत के वर्षा-वर्णन मे रल्पता का मनोरम ल्यल्त्यि है जवकि ऋतु सहार मे पारम्परिक तथा अनुभूत दृश्यो की जगमगाहट है। वर्षा ऋतु की प्रणयो- ढेजता भारतीय कृवियो का चिर उपजीव्य रही है। मेधदूत के पूर्व मेघ मे कवि को इसके लिए पर्याप्त अवकाद्य मिलता है, जबकि ऋवुसहार में उतना अवकादा नहीं है। कुमार सम्भव का वर्षा वर्णन भी अपने टग का अनोखा है, कितु ऋतुमहार मे दर्पा ऋतु के सहज सौंदर्य एवं प्राकृतिक दृश्यों का जो चित्रण है वह उन्हीं की प्रोड रचताओ में अन्यत्र दुल्ेभ है। एक दष्य की बानगी लीजिए-- विपाण्डुरं कौटरजस्तृणान्वितं भुजगवद्‌_ वक्‍्यतिप्रसपितम्‌। से साध्वसमेककुर्ल निरीक्षितं प्रयाति निम्नानिमुजं नधोदकम्‌॥। $ ऋतुसहार २1१३ ऋतुसहार का दरद_ वर्णन ललित कल्पनाओ से वोझिल है। वर्षा ऋतु का आगमन जहाँ राजा के रूप मे हुआ है, वही शरद्‌ को रूपरम्या नववधू के रूप में कवि ने चित्रित किया है। नववब्‌ की जो मनोज्ञ छटा कवि की कल्पना में है बह सचमुच दर्शनीय है। काशाशुका विकचपद्ममनोज्ञकक्रा सोन्मादहसरवनू पुरनादरम्या 1 आपबवद्मालिरुचिरानतगात्रयप्टिः प्राप्ता दरपक्षदवघूरिव रूपरम्या॥ ऋतुसंहार ३1१ शरदागमन में कवि की प्रतिभा का प्रसाद देखने ही बनता है। वह पहले वातावरण को देखता है, जिसमे चनुदिक युत्नता ही शुं भ्रता हे। कास की ज्ञाडियो ने धरती को, तिर्मल चादनी ने रातो को, हसो मे नदियों की जरूराशि को, कमलो मे सरोदरो को, परुप्पो के भार से नीचे की ओर मत के वृक्षों ने जगलो को तथा माहती के पुष्पो न उप- बनो वो इ्वेत-शुअ्र बना दिया है। इस प्रकार कालिदास वी दृष्टि प्रकृति के उन राभी पदायों ओर स्थलों पर रमी है जो झरद्‌ फ़ुतु मे विसी न किसी रूप में बदले हुए से दिखायी पते हैं। आकाझमप्डल मे जलविदीन पवनप्रेरित पयोदो को वह रजत, शस एवं वमल के रामान शू भ्र कान्ति धारण दिए हुए इस प्रकार देवता है जैमे किसी राजा के ऊपर घँवर डुलाये जा रहे हो। बृवि वी दृष्टि घुटे हुए अजन की पिड़ी के समात तीले आकाश, वन्दूक के लाए-लाल बुमुमो से ढंकी पृथ्वी, पके हुए घान से लूदे हुए खेत, भन्नमरी वालियों से शुके घान के पौधो, पृष्पो से बिनन मनोहर वक्षो, विकसित कमछो से मरे लरोवरो की कमल नियो को हिलछान बाके भोतल पवन की मादकता पर रौझ्न उठती है, जो तरुणो के भव को मो झकशोर देती हे। शारदीया रजनी की भावभरी झाक़्यो से ऋतुसहार का तनीय सर्ग अतीव मनोमोहक बन गया हूँ। चद्धमा एवं ताराओं से विमाण्डित नमोमण्डछ को कवि ने एक ऐसे सरोवर के समान देंखा है जिसम्रे मरब॒त मणि को नीली चमक से युक्त जलराशि भरी हो, राजहस बैंढें हुए हो तथा बनेक कुमुद खिले हुए हो। शरद ऋतु के उद्दीपन प्रसगो में कवि ने अपनी कमताय कल्पना का सद्भूत चमत्कार दिखलाया है। विरही जनो को विल्जाकर उसने शरद ऋतु को प्रणयब्यजना का जो रुप खीचा है, चह इस प्रकार है-- परदेसी छोग जब दारद जतु मे खिले हुए नीछे क्मठो में अपनी प्रियतमा की काली आखो को सुन्दरता देसते हैं, मतबाले हमों वे मवुर-उन्मन क्लखों में अपनी प्राणेश्वरी को कनरकाची वे सनयन युनने हैं तथा बन्यूज़ के लाल-लाल पुष्पो से उनके मनोहर जबरो की छारिमा निरोस्ते हैं तर वे अपनी सुध दुघ खोकर दिलाप करने लगते हैं।




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