केशव का आचार्यत्व | Keshav Ka Aacharytav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
494
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पृष्ठभूमि र्३
नास्त्र हैं।' जा ग्रथ विसो विशिष्ट जोवन गति के सम्बंध म पश्राता दें, वे ही शास्त्र
हैं ।' जिस विपय से उस ास््त्र का सम्बंध होता है वह शास्त्र के साथ बहुघा समुक्त
हो जाता है।' आचाय दडी ने शास्त्र का (सम्भवत्त उनका तात्पय काव्य हास्त्र से
ही है) महत्त्व बडी दृढ़ता स॑ प्रतिपाटित किया है। 'ास्त्र से श्रनभिन्त गुण दोष विवक
से पूय ही रहता है। नान वे विविध क्षेत्रा मे शास्त्र वी रचना हुई है। ज्षास्त्र का
उदृश्य विभिन क्षत्र के विद्याधियों या जिनासुप्रो पी युत्तत्ति ही है ई ज्ञान के प्रादान
प्रटान व भाष्यम श्राचाय का जो महत्त्व था वही शास्त्र ग्रथा को प्राप्त हुआ । शास्त्र
की भ्नुता घामिक तथा दाद्ानिक क्षत्र मे श्रतवय मानी गई। 'ास्त्र के प्रति विदवास
आत्तिबता का ही एक भाग एन गया।
चास्त्र व क्षेत्र म भ्राचाय वा रूप उद्भावव का ही नहीं था उसका व्याख्यान
भी दास्त्र के भ्रतगत ही झाता है। उदाहरण क लिए पाणिनि 'याकरण के क्षेत्र का
डद्गावक भ्राचाय वहा जा सकता है। पर वातिक्वार वात्यायन या महाभाष्यकार
पतजलि यो भी भाचाय की कोटि म ही रखा जाता है | बत्यायन ने शास्त्र की ही
रचना की । महाभाष्यकार ने वात्तिको पर टिप्पणी बरत हुए लिखा है कि सिझ
चाटाय म सिद्ध शाद 'ुभ है। प्राय इस शाह रा चास्त्र का स््रारम्भ किया जाता है ।
ध्मसे टास््त्रा की सफ्तता निश्चित मी हो जाती है । पतंजलि न इस शास्त्र की
पचना का कारण भी जिखा है। कात्यायन के समय से प्रूव उपनयनोपरा त ब्राह्मण
था समप्रयम प्यावरण की शिक्षा दी जातों थी | तत्पश्चात् वेदाध्यन प्रारम्भ हीता
था। वात्यायन भौर पतजलि क॑ समय मे क्रम उलटा पहल वद ही पढाया जाता था
और व्यावरण क प्रति उठामीनता बटती जाने लगी थी। विद्याधियों का तक यह था
बलिक' हाट हम बंद से भ्ौर लोक्कि “ब्ल प्रयोग व्यवहार स सीफ लेत हैं । श्रत
ब्यावरण या प्रध्ययन व्यथ है| बात्यापन ने एक विशिष्ट और विकत्तित शास्त्र के
प्रति यह उदासीनतामय प्रात देखी भोर उहोने (माचाय कात्यायन ने) चास्त् वा
सूतन किया इसमे याकवरण के महत्त्व का विरेष रूप ये प्रतिपादन किया * व्याकरण
३२ निदशग्रययां शास्त्र | भमरकोरा
३ विदेश झाह्ा शासन शास्थते..नेन शास्तम् । ामलिगानुशासस् पूना १६४३ पु० २३१३
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प्रजाग्र ब्युत्पत्तिपमिस धाय सूरय । वाचा विचित्रमागाणा निवदेधु नियाविधम्॥ (८णडी)
४ है ७ चरिशापाटश एगॉव्यश/ ए025 ४रण 1 (2००19) 1933
1४४० 138
६ नागानी म* न यहा 'रास्य का अथ व्य करण प उपयाग की यास््या ही माया द | पर
रास्पर का इस प्रकार को अवसकाच यहा उमग्ित नहों टीएला। पततति ने इस शास्ट का प्रयोग
यर्ष्य भ्याकरण शाम्त्र फे लिए दी किया दे । (बच्दा)
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