कर्त्तव्य कौमुदी दुसरे भाग | Karttavya Kaumudi Bhag 2

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Karttavya Kaumudi Bhag 2 by धीरजलाल के० तुरखिया - Dheerajlal K. Turkhiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २) परिस्थिति में मनुष्य जनता के बीच में रह कर भी वानप्रस्थ आऔवन किस प्रकार बना सकता हैँ, इसका बांध अन्थकार ने इस ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में कगया है। प्रवृत्ति को निष्काम बना कर निवृत्ति की आध्यात्मिक साधनां के साग इस खण्ड के प्रथक प्रथक परिच्छेद में दिखाये गये हैं | इसी तरह प्रवृत्ति को विशुद्धतर करते करते चतुथथ आश्रम में प्रवेश करके सवेथा त्याग का आश्रय के आत्मचिन्तन, आत्मध्यान और अन्त में मुक्ति का वरण करने की सीढ़ी का क्रम दूसरे खण्ड के भिन्न भिन्न परिच्छेदों में दिखाया हैं। यश्रपि अ्न्थ में प्रयोग की हुईं परि- भाषाएँ जैन हैं, तो भी जिस प्रकार एक ही गिरि-शिखर पर चढ़ने के लिए प्रथक प्रथक सांग होते हैं, इसी प्रकार निब्ृत्त की आध्यात्मिक साधना के भो प्रथक प्रथक्‌ मार्ग होते हैं। उन मार्गों को अन्थकार ने जैन परिभाषा में दशोया हैं, तथापि अन्य धर्मों के मार्गों में और इस ग्रन्थ में दिखाये गये मार्गों में कितना साम्य है तथा ग्रन्थ में प्रदर्शित तत्त्व विषय में कितने बड़े परि माण में समानता हे, इसे दिखाने का यज्न विवेचन 'सें किया गया है। ग्न्थकार ने बहुधा सूत्ररूप में अपना वक्तव्य दर्शाया है, उसे सरल बनाने ओर जनता के लिए उपयागी स्वरूप निरूपण करने का कार्य विवेचनकार पर निर्भर रहता है। यह कार्य जिस प्रकार प्रथम ग्रन्थ में यथाशत्तिः किया गया, उसी प्रकार इस भ्रन्थ में भी यथाशक्ति किया गया है। ओर भिन्न भिन्न धर्मो' के अभ्यास का एवं साधुओं तथा परिडतों का आश्रय लिया गया है, इससे विवेचन सुगम हुआ, एवं अ्न्थ का वक्तव्य साम्प्रदायिक न बनकर सर्वभान्य बना है ऐसा भुझे विश्वास होता है । द्वितीय अन्ध का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित रूप में देखने की *», आशा रखले वाले बाचकों को प्रथम ग्रन्थ के प्रकाशित होने के .




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