राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला | Rajasthan Puratan Granthmala

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Rajasthan Puratan Granthmala by बहादुर ठाकुर फतेह सिंह - Bahadur Thakur Fateh Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मूमिका भारतवर्ष एक घमंप्रधान देश है! यहाँ ग्रभादिकाल से निगम एवं आगम- सम्मत धर्म की ही स्थिति प्रधान रूप मे प्रचलित रही,है 1 मन्‍लब्राह्मपात्मक बेदो को निगम श्रथवा छन्द नाम से वामन, भट्टोजी दीक्षित आदि महापण्डितो ने भ्रभिहित किया है-- वितरामत्यन्त निशचयेव वा ग्रच्छन्ति अ्रवगच्छधन्ति * (जानन्ति) धर्मममेनेति निगमइउन्द ” अर्थात्‌ 1 रन्तर अयथवा मिश्चयपूर्वक जिसके द्वारा धर्म को जानते हैं उसे निगम श्रर्थात्‌ छन्द कहते हैंँ। परा प्रौर अपरा-मामक विद्याओ' की स्थिति भी इसी म निहित है भ्रत इसी तिगम को धर्मशास्त्र के आचाये मनु ने विद्या एवं धर्म का स्थान माना है 'बेदप्रणि- हितो धर्मो ह्धमेस्तद्विपय्येय ” श्र्थात्‌ वदविहित का ही धर्म एबं तदितर कार्य भ्रधर्म है! याज्ञवल्क्य ने भी पुराण, न्याय, मीमासा एवं धर्मशास्त्रस्वरूप भ्रज्ो से युकत बद को धर्म एव चौदह विद्याओ का स्थान बतलाया है-- “बुर गन्यायमोीमासाधमंशास्त्राज़मिश्रिता / बेदा स्थानानि विद्याना धर्मस्य च चतुदश ।/ त्रिकालदर्शी महपियों ने सम्पूर्ण शब्दराशि को श्रायम-निग्मम-भेद से दो भागों में विभवत किया है । क्ष्यो कि प्रकृतिध्तिद्ध नित्यशब्दब्रह्म इन्ही दो भागों में विभवत है । यद्यपि श्रथों वागेवेद सर्वम!* वाचीमा विश्वा भुवनान्यपिता'? ग्रादि श्रौतसिद्धान्तो के झनुसार वाक्तत्व से धादुर्भू त होने वाले शब्दप्रपञ्च से कोई स्थान खाली नही है तथापि स्वगंनाम से प्रसिद्ध १४ प्रकार वे भूतसग्ग के साथ प्रधानरुप से भग्निवाक्‌ और इन्द्वाकू का ही सम्बन्ध है। पथिवी भगिनि- मयी है भोर द्युलोकोपलक्षित सूर्य इन्द्रमय है” । पराथिव एवं सौर प्रग्नि अन्नाद (अन्न खानेवाले) हैं श्र मध्यपतित चान्द्र सीम इन अग्नियो वा झन बन हा रहा है! । भ्रम जब झनाद के उदर में चला जाता है तो वेवल श्रन्नाद-सत्ता हो १ व विद्य वद्धितव्ये परा चंवापरा च । (१) परा--उपनिषद्धिया। (२) धपरा-- ऋग्वेदादि ) २ ऐतरेयारण्यक० ३।१1६। ३. तैत्तिरीय ब्राह्मण राष्ाद।ई । ४. यधाननिगर्भा पृषिवी तथा द्यौरिद्रे ण गरभिणी दतपचथब्राह्मरा १४६1७1२० ४ 'एप थे सोमो राजा देवानामन यक्चदमा! कं शहा४धर




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