प्रमेय कमल मार्तण्ड भाग १ | Prameykamlamartand Vol Ii

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Prameykamlamartand Vol Ii by महेंद्र कुमार न्यायशास्त्री - Mahendra Kumar Nyay Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना २१ इस तरह न्यायकुमुदचन्द्रके आधारभूत ग्रन्धोंमें न्‍्यायमंजरीका नाम लिखा जा सकता है । वाचस्पति और प्रभाचन्द्र-षड्दशनटीकाकार वाचस्पतिने अपना न्‍्यायसूचीनिवन्ध ३० ८४१ में समाप्त किया था । इनने अपनी तात्पयेटीका (१० १६५ ) में सांख्यों के अनुमान के मात्रामात्रिक आदि सात भेद गिनाए हैं ओर उनका खंडन किया है । न्यायकुमुदचन्द्र (० ४६२ ) में भी सांख्योंके अनुमानके इन्हीं सात भेदोंके नाम निर्दिष्ट हैँ । वाचस्पतिने शांकरभाष्यकी भागती टीकामें अविद्यासे अविद्यके उच्छेद करने के लिए “यथा पयः पयो5- न्तरं जरयति खर्य च जीयेति, विष विषान्तरं शमयति खय्य॑च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोइन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्त रजोन्तराणि भिन्दत खयमपि भिद्रमानमनाविल पाथः करोति***” इत्यादि दृष्टान्त दिए हैं। अभावचन्चने प्रमे- यकमलमात्तेण्ड (घ० ६६ ) में इन्हीं दृष्ान्तों को पूर्वपक्ष में उपस्थित किया है । न्यायकुमुदचन्द्रके विधिवादके पूर्वपक्षमें विधिविवेकके साथही साथ उसकी वाचस्पतिकृत न्‍्यायकणिका टीकाका भी पयाप्त साहइय पाया जाता है । वाचस्प- तिके' उक्त ईैं० ८2४१ समयका साधक एक ग्रमाण यह भी है कि इन्होंने तात्पयेटीका (० २१७ ) में शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रह ( छो० २०० ) से निम्नलिखित शोक उद्धत किया है-“नत्तेकीग्रलताक्षेपो न ह्येकः पारमार्थिक: । अनेकाणुसमूहल्वात्‌ एकल तस्थ कल्पितम्‌ ॥” शान्तरक्षितका समय ई० ७६२ हे । दराबर ऋषि ओर प्रभाचन्द्र-जेमिनिसूत्र पर शाबरभाष्य लिखने वाले महर्षि शबरका समय ईसाकी तीसरी सदी तक समझा जाता है। शाबरभाष्यके ऊपर ही कुमारिल और प्रभाकर ने व्याख्याएँ लिखी हैँ । आ० प्रभाचन्द्रने शब्द- निद्यल्वाद, वेदापौरुषेयल्वाद, आदियमें कुमारिल के 'छोकवार्तिकके साथ ही साथ शाबरभाष्य की दलीलों को भी पूर्वपक्षमें रखा है । शावरभाष्य से ही “गोरित्यन्न कः शब्दः ? गकारोकारविसजेनीया इति भगवानुपवर्ष:”? यह उपवर्ष ऋषि का मत प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( घृ० ४६४ ) में उद्धृत किया गया है । न्यायकुमुदचन्द् ( पृ० २७९ ) में शब्दको वायवीय माननेवाले शिक्षाकार मीमांसकोंका मत भी शावरभाष्यसे ही उद्धुत हुआ है । इसके सिवाय न्यायकुमुदचन्द्र में शाबरभाष्यके कई वाक्य प्रमाणरूपमें ओर पूर्वेपक्ष में उद्धत किए गए है ॥ कुमारिल ओर प्रमाचनद्र-भट्ट कुमारिलने शाबरभाष्य पर भीमांसाःछोक- वार्तिक, तन्त्रवार्तिक और ठुपूटीका नामकी व्याख्या लिखी है कुमारिलने अपने तन्त्रवार्तिक (६० २५१-२०३ ) में वाक्यपदीयके निम्नलिखित श्छोककी समा- छोचना की है--- “अस्थ्यर्थ: सर्वेशब्दानामिति ग्रद्याय्यलक्षणम्‌ ॥ अपूर्वदेवताखग: सममाहुगेवादिषु ॥” [ वाक्‍्यप० २१२१ | इसी तरह तन्च्वार्तिक ( प्ृ० ३२०९-१० ) में वाक्‍्यपदीय (१७) के




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