नवसाहसाक चरितम | Navsaahsaank Charitam

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Navsaahsaank Charitam by जितेन्द्रचन्द्र भारतीय - Jitendrachandra Bharatiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २० ) प्रकार फी घटनाओं की योजना की गई है, शोर उनके ऋक्रमिक विकास की सप्राप्ति भी धरृगारसाघन के हेतु ही हुई दे । जिस प्रकार कालिदास की रसयोजना श्रपने क्षेत्र में सर्वसुन्द्र है, उसी भाँति परिमलपद्मगुप्त की रसयोजना भी अपने ढंग की निराली है। फालिदास का श्रनुकरण करने पर भी उसमें कवि ने अपना व्यक्तित्व और मौलिफता सुरक्षित रखी है । कालिदास फो रसाभिव्यक्ति फा वातावरण और दंग कुछ दूसरा ही दे, भर इस कवि का कुछ दूसरा | इसके श्रृंगार में आदर्श की दिव्य सृष्टि है। रतिमाव की सूद्धमता को पहचानना परिमल- पदमगुप्त को भलीमाँति आता था। इसीलिए उनका रसपाक और उसकी योजना श्रीचित्यपूर्ण टंग से हुई है | काव्य के प्रारम्भ में द्वी जब राजा मृगया-विहार को जाता है तो विन्ध्याटवी में उसकी वीरदा फा परिचय मात्र कराकर कवि सिन्धुराज की ललित प्रकृति का परिचय देने लगता है। उसका सीन्‍्दयंप्रेम हंसदर्शन और हारदर्शन से द्वी व्यक्त दोने लगता है। शशिप्रभा के द्वार पाने और उसमें शशिप्रमा का नाम पढ़ने से द्वी फामभावना अ्रंकुरित द्ोती दिखाई देती है और इसका स्वल्प विफास पादछा के दछारा शशिप्रभा-रूपवर्णन से होता है | दर्शन से उसफी श्रन्तमुखी प्रवृत्ति फो चालना मिलती है । तब विष्मृति, चिन्ता एवं उत्दंठा फा प्रादुर्भाव राजा के छृदय में दो जाता है । धीरे-धीरे जैसे दी जैसे राजा शशिप्रमा के उस हार फो निपुणतया देखने लगता है तो उसके छदय में उत्सुकता बढ़ने लगती है, और दक्षिण- बाहुस्‍्फुरण से शशिपग्रमा की प्रत्याशा भी होने लगती है । यहाँ से शूगाररस फे स्थायी भाव का उन्मेप होने लगता दै। रतिमाव के उन्मेष तक बड़ी दक्तता से कवि ने संचारी भावों का स्वल्प चित्रण क्रिया | तदनन्तर राज- दर्शन दोने पर पाटलाइत शशिप्रभा-सौन्दर्यवर्णन से रतिभाव फो अधिक उन्मेपित किया गया | एक ओर नृपति सिन्धुराज के छुदय में रतिमाव का उन्मेष किया गया है, भर दूसरी श्रोर हृपति के बाण पर नवसाइसादः का नाम लिखा देखपनर शशिप्रमा के हृदय में भी अनुराग को भावना जाश्त दिखाई गई है । नायक श्रीर नायिका में समान रतिभाव को दिखाकर शू गाररस का ओचित्य भी कवि ने व्यक्त किया है | इसी औचित्य फे आधार पर रस करा परिपाक नेसर्गिक ढंग से सफल बन पड़ा है | शशिप्रमा की कामावस्था फा वर्णन फवि इस रूप में करता दे | रूपमास्वादयामास तस्यालेख्यगतस्यथ सा | अमरीबारविन्दस्य सुधासदचरं॑ मधु॥ (७। 5४ )




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