श्रीसूत्रकृतांगम भाग - 2 | Shrisutrakritangam Bhag - 2

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Shrisutrakritangam Bhag - 2  by अम्बिकादत्त ओझा - AmbikaDutt Ojha

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अम्बिकादत्त ओझा - AmbikaDutt Ojha

Add Infomation AboutAmbikaDutt Ojha

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
+९/१ उपसर्गाधिकारः १ » खिजइ मुहलावर्ण्ण बाया घोलेह कंठमज्ञमि | कहकहकहेद हियय॑ देद्धित्ति परं भणंतस्स ॥१॥ गतिश्नशो मखे देन्य, गात्रस्वेदो विवरणता। मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिह्ाानि याचके ॥१॥” इत्यादि, एवं दुस्त्यज याश्वापरीपह परित्यज्य गतामिमाना महासच््या ज्ञानायभिव्वद्धयें महाएरुपसेवित पन्थानमलुत्रजन्तीति । छोकपथादँना55क्रोगपरीपह दर्शयति “-प्थणजनाः' ग्राकहृतपुरुषा अनार्यकरपा “स्येवमाहुः इत्येबमुक्तवन्त), तद्यथा--ये एते यतयः जछाविलदेश लुशख्वित- शिरसः श्लुधादिवेदनाग्रस्तास्ते पते पूर्वाचरितेः कर्ममिरार्ताः पूर्व॑स्वक्ृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यद्वा--कर्मभि।--क्षप्यादिभिगर्ता;--वत्कच्चुमसमर्था उद्धिय्राः सम्तो यतयः संबत्ता इति, तथैते 'दुभंगाः सर्वेणिव पुत्रदारादिना परित्यक्ता निगतिकाः सन्तः ग्रत्नज्यामस्युपगठा इति ॥ & ॥ अन्‍ीजरीनलीजटची किसी से कुछ मॉगता हुआ यह कहता है कि “ अमुक वस्तु मुन्नको दो ” उसके मुंखका हावण्य क्षीण होजाता है और वाणी, कण्ठके मध्य में ही घूर्णित होने छूगती है तथा हृदय, ध्याकुछ होजाता है| मौँगनेवांकी गति, ( चढना ) विगड़ जाती है, सुख, दौन हो जाता है, शरीर में पसीना वहने छगता है और उसका वर्ण फोका होजाता है इस प्रकार मरण समय में जितने चिन्ह दिखाई देते हैं वे सव याचक्र पुरुष में छक्षित होते हैं । इस प्रकार दुःसह्य॒याज्चापरीपहको त्याग कर अभिमान रहित महास्न जीव ही, ज्ञान आदि .को बृद्धिके लिए महापुरुषो से संवित मार्गके अनुगामी होते हैं | अब सत्रकार, गाथा के उत्तरार्ध से आक्रोश परीपह वतदाते हैं | साधारण पुरुष जो अनार्य के सब्ण होते हैं वे साथुक्नो देख कर यह कहते हैं कि “ ये जो मल से परिपृर्ण जरीखाले, लुम्चितगिर, क्षुता आदि वेदनाओ से पीड़ित साधु हैं वे अपने पृर्वक्ृत पाप कर्मों से पीड़ित हैं| ये अपने पाप कर्मक्रा फाड़ भोग कररदे हैं अथवा ये लोग कृषि आदि कर्मों से पीड़ित होकर अर्थात्‌ कृषि आदि कर्म करने में असम होकर साधु वन गए हैं | तथा ये छोग अमभागे हैं | ये, त्री पुत्र आदि सभी पदार्थों से हीन और आश्रय रहित होनेके कारण प्रतम्याघारी हुए हैं। ॥ ६ ॥ वन ल+न न तन नन+-*०+८०+ * क्षीयत्ते सुखलाव्ण्य बाचा गिरूति (धू्णति) कण्दमध्ये | काकहकाट्रितहदय देचीति पर भणनः ॥ १ ॥




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now