पुरुषार्थसिद्धयुपाय | Purusharthasiddhayupay

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Purusharthasiddhayupay by लालचन्द्र जैन - Lalchandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्री अप्ृत चन्द्र आचार्य कृत सस्‍्कृत “पुरुषार्थ सिद्य्यपाय ग्रन्थ का हिन्दी भाषनुवाद अर्थात्‌ श्रीयुद्‌ उम्रसेन, एम ए ,ऐडवोफ़ेट, रोहतऊ, द्वारा, सम्पादित भाषा-पुरुषार्थ सिद्धचुपाय ॥| तजयाते पर ज्योति सम समस्तेरेनन्त पर्याये । दर्पणतल इप सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥१॥ भावार्-वह शुरू चेतनामई परम ज्योति जययन्ती होबे,जिसमे कि जगत्‌ के जीवादिक समस्त ही पदार्थ अपने अपने आकार,ग्रुण तथा अतीत अनागत वर्तमान सम्बन्धी पयोयों सहितत,ठीक उसी शकार प्रति- निम्बित होते है,जैसे कि शीरे में घटपट आदिऊ पदार्थ प्रतियिम्बित होते हैं । शीशे के इस दृष्टान्त में विशेषता यह है कि शणे में ऐसी अमिलापा नहीं हूं कि मैं इन पदार्थों को अतिविम्बित करू,या जेसे लोहे को सुई चुम्बक पत्थर के समीप स्य ही जाती हैं वैसे शोशा अपने स्वरूप को छोड़कर पदाथों को प्रतिब्रिम्वित करने के लिये उनके पास नहीं जाता हैँ ओर न ही वे पदार्थ अपने निञ्र स्वरूप को छोड उस शीशे के अन्दर प्रवेश बर जाते है | या जेंसे कोई पुरुष किसी दूसरे पुरुष को




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