विजनवती | Wijanavati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शी । निस्मन्‍्दह मने बेंगलाके दो चार ऐसे शब्दोको ग्रहण क्या ह्‌ जिह बगाली छेखकोने हिंदीसे अपनाया हैँ। जहाँ-जहाँ मने इस प्रकारवे शब्दोगों अपने भाव और छन्द- सद्भीतके उपयुक्त समझा है वहाँ वहाँ मने इरादतन्‌ उनवा उपयोग क्या और ऐसा करनेका अपनेको पूरा अधिकारी समझा हू 1 शान्तिप्रियजीने मेरी भाषाके सम्बधर्में एक ऐसी पतेकी वात लिखी है जो मुझे बहुत जेची। उन्हाने खा है, उसमें 'परुष सुकुमारता' पायी जाती हू। म अपने आप अपनी भापाके वास्तविक स्वरूपकी ठीक-ठीक परस वरनेमें असमथ था। तथापि म चाहता था कि मेरी भाषा मेरे भावके पूणत अनुरूप हो। में नही चाहता था वि' मेरी फविताओमें स्त्रण भावाया समावेश हो, तथापि कठिन, कठोर, परपतासे भी में बहुत घवराता हूं। मेरी ऐसी घारणा ह्‌ कि मेरी बविताओंके भाव भी 'सपरुष सुकुमार' ही हू, अतएवं यह जानकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई विः मेरी भाषा भी मेरे भावोके अनुरूप हू) म॑ यद्यपि सरस, सुललित, कोमल-कमतीय भाषाया गुण-ग्राहक हूँ, तयापि मेरा विश्वास है कि उच्च और गम्भीर भावोंके बणनके लिये कालिदासकी मेघदूती भाषाका स्निग्ध-गम्भीर घोषात्मक रूप ही सुन्दर जेंचता है, जिसमें सरसता और सजलताके साथ गुरुत्व भी हो। यहाँपर प्रसद्भवश मुझे रवीद्वनायकी एवं बात याद आ रही है। उन्हाने अपनी किसी एब' पुस्तवमें लिखा था कि कोमल-कात पदावलीके आचाय, गीत-गोविदके सुप्रसिद्ध रचयिता जयदेव कविकी ललित-लवज्भी भाषा यद्यपि अत्यन्त सरल और सुकोमल हू, तथापि इसकी सरसता केवल बाह्येद्रिय को तप्त करके ही रह जाती हू, अर्थात्‌ वह रसज्ञके मममें प्रवेश नही कर पाती। जयदेववे प्रसिद्ध पद ललित-लवद्भलता-परिशीलन-कोमल-मल्य-समीरे” आदिकी तुल्नामें उहोने वालि्दासका निम्न पद उद्धत किया था-- आवर्जिता किश्चिदिव स्तताभ्याम्‌ बासो वसाना तरुणाक रागमम्‌ 1 पर्याप्त पुष्पस्तवकावनम्रा सब्चारिणों पल्छविनी छतेव ॥ इस इलोकके सम्बधम रवीद्रनायने लिखा था वि इसवी भाषाकी सकठिन- कोमलता, इसकी ग्रतिका उत्वान और ऊूय मिलकर जादूका ऐसा मज-सा फूव' देते हु कि वह अतरि(द्रियको तीव्र वेगसे आन्दोल्ति करता हू। इसके अतिरिक्त इसके अन्तरीण भावके रसोच्छवासने भी इसकी सपरुष-सुकुमार भाषाके शब्द-




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