यजुर्वेद - व्याख्या चतुर्थ पुष्प | Yajurved Vyakhaya Chaturth Pushpa

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Yajurved Vyakhaya Chaturth Pushpa by विद्यानन्द विदेह - Vidyanand Videh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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य० श्र० ना स्वाहा यज्॑ मनस स्वाहोरोरन्तरिक्षात्स्वाह्मा ।. यावापुथिवीभ्यां. स्वाहा वातादारभे स्वाहा ॥1 (य० ४1६ हे स्वाहा यज्ञ मनस स्वाहा उरो श्रतरिक्षात्‌ स्वाहा द्यावापधथिवोभ्यां स्वाहा बातात्‌ आ-रभे स्वाहा ॥। में (यज्ञ आ-रभे) यज्ञ आ्रारम्भ करता हूं (स्वाहा) स्वाहुति द्वारा (मनसः स्वाहा) मन से स्वाहुति द्वारां (उरो अन्तरिक्षात्‌ स्वाहा) वि्याल अन्तरिक्ष से स्वाहुति द्वारा (द्यावापथिवीभ्यां _ स्वाह्म) द्यौ और यृथिवी से स्वाहुति द्वारा (वातातु स्वाहा) वात से स्वाहुति द्वारा । स्वाहा नाम है स्व-आहुति ग्रथवा आत्म-आहुति का । स्वाहा नाम है सु-आहृति का । स्व-्राहति ही सु-ग्राहुति है । स्व-आहुति से बढ़कर श्रन्य कोई आहुति नहीं है। यज्ञ का . प्रयोग हुआ है यहां _ देवयजन अथवा दिव्यीकरण कीं साधना के लिये । .. .केवंख बाम श्र आशीर्वाद की प्राप्ति से ही _ पृथिवी के दिव्यीकरण का सुपावन यज्ञ सम्पन्न नहीं होजायेगा । यज्ञ का. सुलमन्त्र तो स्वाहा है .. स्व्याहुति है स्व सर्वस्व की आहुतिं है। स्वाहा स्वभ-झा+ज-हानूस्व का+पुर्ण +त्याग _ [आहुति । _ .. अग्नियाग भी तो स्वाहा के द्वारा ही सम्पन्न होता है। स्व स्व पदाथं की पूर्ण श्राहुति देने से ही. श्ररिनियज्न होता है। स्वाहा कहते ही यज्ञ करनेवाले यज्ञार्नि में श्रपने श्रपने पवित्र पदार्थ की पुरण भ्राहुति देते हैं अपनी श्रपनी पावन हुवि और _ श्रेपना अपना पुनीत घत होमते हैं। तभी यज्ञ इक और अडिग होता हैं तो महान से महावु बलिदान... और साधना भी सरल प्रतीत होती है। एरेब होता है श्र यज्ञ की सुगन्धि सब ओर व्यापती है । स्वाहा ही यज्ञ का झ्रात्मा है । इसी भावना से भावित होकर देवयजन के याजकों में से प्रत्येक थाजक कह रहा है-- १) मैं (यज्ञ) पृथिवी के दिव्यीकरण के यज्ञ को (आ-रभे) श्रारम्भ कर रहा हूं (स्वाहा) व-आहुति द्वारा ... देवयजन प्रारम्भ करने से पु्व दिव्य याजक को स्व-ग्राहुति आर आत्म-बलिदाव के लिये समुद्यत होना चाहिये। देंवयजन का प्रारम्भ साथियों और साधनों के आश्रय से नहीं झ्रात्माश्रय से किया जाता है। स्व-श्राहति देकर देवयजन प्रारम्भ करने .के शभ्रनन्तर कालान्तर में श्रसंख्य साथी श्रौर अनन्त साधन स्वयमेव चलते चले ऑ्रायेंगे । प्रारम्भ तो स्वाहा से पुनीत स्वाहुति से स्व को सुपावन आइति से ही करना होगा । २) मैं (यज्ञ॑ झा-रभे) देववजन श्रारम्भ करता... (मनस स्वाहा) मत से स्वाहुति की भावना द्वारा। देवयजन के लिये देवयाजक अपने मन से स्वाहृति की भावना को हढ़ करता है । मन संकल्प... का केन्द्र है।. संकल्प की हृढ़ता ही है जो हंसते हुंसते स्व सर्वेस्व की आाहृति देकर मनुष्य जान की बाज़ी लड़ा देता है। मन ही आहृति श्र अनाहुति का कारण हैं । मन का संकल्प सत्य शिव ला लव मय पक पिन सस्स्न देर रिक- तारिक न सरर रत की नि कक निव्िगकयसदिकियी दल लय देकर नस नए 5 एटा




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