अथर्ववेदीया बृहत्सर्वानुक्रमणिका | Atharvavediya Brihatsarvanukramanika

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Atharvavediya Brihatsarvanukramanika by रामगोपाल शास्त्री - Ramagopal Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १२६ ] कल्पनाओं का करना । यादे वह यह कहे, कि प्राचीन पद पाठ आर स्वर नियम अशुद्ध हो सकते हैँ, तो इसके उत्तर में हम यह कह देना चाहते हैं, कि समग्र अथर्व वेद मे अन्यत्र बहुत स्थलों में कुष्ठ की उत्पात्त का वर्णन आया है। सब जगह हमारे ही भाव हैं नोका के टूटने का संकेत कहीं नहीं । इस मंत्र में: आप देखेंगे ऊपर लिखा हे कि जहां नाश नहीं, उत्तर पद में लिखा है जहां अम्रत का दश्शन होता है । ये दोनों वाक्य भी एक भाव के पोषक हैं। अतः मेकडानल की कल्पना अशुद्ध हे । दूसरी बात हमें यद्द नहीं समझ में आती कि यदि नोका का टूटना भी माने तो इस मनु मत्स्य कथा से क्या सम्बन्ध होगा, क्योंकि समग्र सांस(रिक प्रलय कथाओं में किश्ती के निम्मौण का वर्णन तो आता हे, परन्तु प्रश्रशन का वर्णन कहीं नहीं आता ओर न ही नोका ट्ूटमे से कुछ तात्पय्ये है, अतः इन न, अब, दो भिन्न पदों को मिलाकर 'नाव' पद बना नोका अथेवेद मंत्र के प्रकरण, पद पाठ, स्वर नियम ओर बुद्धि के विरुद्ध हे; अतः मेकडानल की कल्पना मान- नाोय नहीं । इस दीधे लेख से हम इस निर्णय पर पहुंचे हें कि यह इतनी जगत्‌ प्रांसद्ध कथा ब्राह्मण काल अथवा इससे पूव काल मं तो प्रसिद्ध थी परंच वेद के काल में इस कथा का कोइ नहीं जानता था | अतः ऐतिहासिक विचार से भी वेद आज से ४००० वषधे पू्े ही ठहरता है, अतः मेक्‍्समुज्लर तथा मंकडानल आदि लेखकों का वेद काल परिमाण नितरां अशुद्ध श्रम मूलक ओर निमूल हे । तिलक ने अपने '01८४10 11076 10 1)16 ५९१४४ नामक ग्रंथ में सगा' 07107 नामक नक्षत्राधार से वेदकाल ४००० इं०पू० से ६०००ई०पू० तक पहुंचाया है। “ऐसे ही जेकाबी भी चार सहरत्र वर्ष ही वेदकाल का निणय करता है । मरहद्वा ब्राह्मण दीक्तित शतपथ ब्राह्मण २। १। २। ३ में “ता ह वे रूत्याः प्राच्य दिशो। न च्यवन्ते सबोशणि ह वा अ्रन्यानि नक्षत्राणि प्राच्ये दिशश्च्यवन्त”' ।




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