श्री योगवाशिष्ठ भाषा | Shri Yogwashishth Bhasha
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
611
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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और वाज्छा भी मुर्भे कुछ नही है, में सव कलननाओ से रहित और
निरामय हूँ । उज्बल और श्याम रक्त पीव मांस और अस्वियों
# वाली शरीर भी मे ही हैँ और वृण॒पयन्त पुष्य, बन, पवेत समुद्र
» और नदियों ग्रहण और त्याग तथा भूत आदिक शक्तियाँ भी मेही हूँ
+ मेंने ही सर्वत्र विस्तार किया हे और मेरे ही आश्रय सब फूर रहे है
ऊँ सर्वरुप रस मे मे ही हूँ। जिसमे और जिससे सब है, ओर जिसको सब हे
# जोही सबहे ऐपता चिदात्मा बअक्म में ही हें। चेतन आत्मा, बह्म, सत्य, (९
के अस्त, ज्ञानरुप आदिक मेरे ही नाम हैं । में ही सब भूतों का प्रकाशक $£
मन बुद्धि और इन्द्रियों का स्वामी हूँ। सारी भेद कलनाये तो इसने &
ही की थी, अब इसकी कलना को त्यागकर में अपने प्रकाश मे
स्थित हूं। मे ही निर्लेप, सबका माज्ञी और में ही देत कलना से रहित
हैं। मुझे कोई ज्ञोभ नहीं है। सारे जगत मे शान्तरूप से में ही
फंला हैँ और सारी वासनाओ से रहित क्षोभ रहित अनुभव भी मे
ही हैँ। मुकसे ही समस्त स्वादों का अनुभव होता है ऐसा चेतन
रूप आत्मा मे हूँ पर जिसका चित्त खी-मे आसक्त है ओर जो उसे
चन्द्रमा की कान्ति से भी अधिक प्रिय है और जिससे उम्र स्री के
स्पर्श और प्रसन्नता का अनुभव होता हे ऐसा चेतन बच्य में ही हूँ।
खजूर और नीम आदि मे स्वादरूप मे ही हूँ । मुके पश्चाताप,
आनन्द, हानि और लाभ एक समान हे। जाग्रत स्वप्न, स॒ुपुप्ति और
तुरीया आदिक अवस्थाओ में से अनेक बृत्त होते हैं उम्ी प्रकार
एक ब्रह्म सत्तासे अनेक मृर्तियाँ स्थित हैं, में सुर्य के समान सबका
प्रकाशक रूप ब्रह्म सब शरीरों मे ब्याप रहा हूँ। मोती की माला
के गुप्त तागो के समान मोती रूपी शरीर में तन््तु रूपसे में ही
गुप्त हें। में ही जगतरूपी दध में अह्मरूपी इत से व्याप रहा हूँ ।
हे रामजी ! सुवर्ण से जो अनेक प्रकार के आभूषण बनते हैं सो सव
वर्ण से भिन्न नहीं हे ऐसे ही कोई भी पदार्थ आत्मा से भिन्न नही
। समस्त पर्वत समुद्र ओर नदियाँ सत्तारूप आत्मा ही है। समस्त &
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