खरतरगच्छ का इतिहास भाग - 1 | Kharataragachchh Ka Itihas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
58 MB
कुल पष्ठ :
222
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)है आचाय जिनेश्वरसूरि [ ११ ]
चुके थे कि मन्दिरों के बिना उनके सारे आनन्द में इतनी महती बाधा उपस्थित हो गई, जिसको
वे किसी प्रकार भी नहीं सह सके और मानापमान का त्याग करके वे लोग भिन्न-भिन्न बहानों से
एक एक करके सब ही वापिस मन्दिरों में आकर रहने लग गये ।
४. श्रीवर्धभानत्वरि भी राज-सम्भानित होकर अपने शिष्य-परिवार सहित उस देश में सर्वत्र
विचरण करने लगे। अब कोई भी किसी भी प्रकार से इनके सामने बोलने की क्षमता नहीं रद्वता
था । इसके बाद शजिनेश्वरत्तरि की योग्यता और विद्वत्ता देखकर शुभ लग्न में उन्हें अपने पाठ पर
स्थापित किया ओर उनके भाई बुद्धिसागर की आचार्ख पद दिया एवं उनकी बहिन कल्याणमति
को श्रेष्ठ प्रवर्तिनी पद दिया गया । फ़िर इस तरह ग्राम-ग्रामान्तरों में विचरण करते हुये आचाय
जिनेश्वरत्चरि ने जिनचंद्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभद्र, प्रसबचंद्र, धर्मदेव, सहदेव, सुमति आदि
अनेकों को दीक्षा देकर अपना शिष्य बनायां। इन दिनों भ्रीवर्धभानसरिजी का शरीर बृद्धावस्था
के कारण शिथिल हो गया था | अतः आ बू तीथ में सिद्धान्त-विधि से अनशन लेकर देवगति को
प्राप्त हुए । -
६, तत्पश्चाव जिनेश्वरश्तरि ने जिनचंद्र ओर अभयदेव को गुणपात्र जानकर खरे पद से
विभूषित किया ओर वे साधना करते-करते क्रम से युगप्रधान पद पर आसीन हो गये । धनेश्वर-जिनकों
जिनभद्र भी नाम था-की तथा हरिभद्र को छ्रि पद और धमदेव, सुमति, विमल इन तीनों को
उपाध्याय पद से अलंकृत किया। धर्मदेवोपाध्याय और सहदेवगणि ये दोनों भाई थे । धम्मदेव
उपाध्याय ने दोनों भाई हरिसिंह ओर स्वेदेवगशि की एवं पण्डित सोमचंद्र को अपना शिष्य बनाया ।
सहदेवगणि ने अशोकचंद्र की अपना शिष्य बनोया, जो गुरुजी का अत्यन्त प्रिय था। उसको
जिनचंद्रसरि ने अच्छी तरह शिक्षित करके आचाये पद पर आरूढ़ किया। इन्होंने अपने स्थान पर
हरिसिंहाचार्य को स्थापित किया । प्रसब्नचंद्र ओर देवभद्र नामक दो खरि ओर थे। इनमें देवभद्रसरि
सुमति उपाध्याय के शिष्य थे । प्रसन्नचंद्र आदि चार शिष्यों को अभमयदेवसरिजी ने न्याय आदि
शास्त्र पढ़ाये थे । इसीलिए जिनवल्नभगणि ने चित्रकूटीय प्रशस्ति में लिखा हे---
सत्तक॑न्यायचर्चाचितचतुरगिरः श्रीप्रसन््नेन्दुसूरिः,
सूरिः श्रीवर्धभानो यतिपतिहरिभद्रो मुनीड्देवभद्रः ।
इत्याद्याः सर्वविद्यायवसकलभुवः सअ्रिष्णुरुकीतिः,
स्तम्भायन्तेघुनापि श्षुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥
[ तक न्याय चर्चा से भूषित चतुरवाणी वाले प्रसन्नचन्द्रसरि, वर्धेभानसरि, हरिभद्रसरि, देवभद्र-
सरि आदि के विद्यागुरु अभयदेवाचाये थे। ये समस्त-विद्यारूपी समुद्र के पान करने में अगस्त्य
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