शत्रुंजय - वैभव | Shatrunjay - Vaibhav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
394
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मुनि कान्ति सागर - Muni Kanti Sagar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१७
वि० सं० १३७९ के मंगसिर बदि ५ को तैजपाल ने शन्रुंजय में
विधि चैत्य की स्थापना की । इस समय खरतरगच्छ के आचार्य जिन कुशल
सूरि एवं कई उल्लेखनीय श्रावक वहां उपस्थित थे । इसकी प्रतिष्ठा
वि० सं० १३८० में की गई थी । इसी वर्ष के अन्त में आषाढ़ वदि ६ के
दिन शत्रुंजय की यात्रा की गई। लेख में इसे “सकल तीर्थावली प्रधान
सर्वातिशय निधानं” कहकर सम्बोधित किया। इस अवसर पर रथपति
सुश्रावक ने अपनी पत्नि और पुत्र के साथ स्वर्ण टंकों से पूजा की । अन्य
श्रावकों ने रुपयों के टंकों से पूजा की । इस अवसर पर् वहां देवश्द्र और
यशोभद्र नामक दी साधुओं को दीक्षा भी दी | वि० सं9 १३८० में शत्रुंजय
पर दिल्ली से एक विशाल संघ खरतरगच्छ के जिन कुशल सूरि के सा न्निध्य
में निकला | यह राजस्थान, गुजरात होकर वहां पहुंचा था । इससें ठककर
फेर धांधिया भी सम्मलित थे ।
जैसलमेर के श्रेष्ठि रांका परिवार के लेखों से ज्ञात होता है कि इस
परिवार ने वि० सं० १४३६ और १४४६ में शत्रुंजय की यात्रा की थी ॥!
ये खरतरगच्छ के श्रावक थे। इन्होंने जैसलमेर में पाश्वेनाथ मन्दिर की
स्थापना की थी एवं इसकी प्रतिष्ठा आचार्य जिनव्धंन सुरि से कराई थी ।
जेसलमैर के ही अन्य श्रावक श्वेता संखवाल का नाम उल्लेखनीय है । इसने
वि० सं० १५११ से १५१४ त्तक प्रत्येक वर्ष शत्रुंजय की यात्रायें को |?
प्रत्येक वर्ष शत्र॑ंजय पर थात्राथ जाने के उदाहरण इस प्रकार से बहुत्त कम
मिलते हैं।
चित्तोड़ के श्रेष्ठि गुणराज ने जो तपागच्छ का श्रावक्र था वि० सं०
१४५७, १४६२ एवं १४७७ में शन्नुजय की यात्राये की । अन्तिम यात्रा में
इनके साथ सोमसुन्द्र सूरि एवं रणकपुर मन्दिर के निर्माता श्रेष्ठ
घरणाशाह भी गये थे ।१ यह परिवार चित्तौड़ और अहमदाबाद में रहता
१. पूर्णचन्द्र नाहर जेल लेख संग्रह भाग ३ लेख सं० २११६ ।
२, उक्त, लेब सं० २५५४।
३. डी. आर, भंडारकर “जरनल, वम्बई ब्रांच रायल एशियाटिक सोसायटी
भाग २३ पृ. ४१ । लेखक की कृति “महाराणा कुम्भा” में इसका मूल पाठ
और विस्तृत अध्ययन दिया हुआ है ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...