ऊहापोह | Oohapoh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
58
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२० ऊहापोह
कर
देना भी अतायं-कर्म कहा गया हैँ । सौगत तनत्र ने भी आत्मपीड़ा के मार्ग को
ठीक नहीं समझा । स्पष्ठ ही कहां है :--
सर्वकामोपभोगेदच सेव्यमानेर्ययेच्छत: ।
अनेन खल योगेन रूघु बुद्धत्वमाप्नुयात् ॥
दुष्करनियमेस्तीत्रें: सेब्यमानो ने सिद्धयति ।
सर्वकामोपभोगेस्तु सेवयंदबाशु सिद्धयति ॥ (गुहँय समाज पृष्ठ २७)
कामोपभोगों से घिरत जीवन बिताने वाले साथकों में मानसिक क्षोस उत्पन्न होते
होंगे--कामभोगों की ओर उनकी इच्छा दोड़ती होगी और विनय के अनुसार उसे
वे दबाते होंगे, पर क्या दसनमात्र से चित्तविक्षोभ सर्वेदा चला जाता होगा?
दबायी हुई वृत्तियां जागतावस्था में न सही, स्वप्नावस्था में तो अवश्य ही चित्त
को मसथ डालती होंगी । इन प्रमथनशील वृत्तियों को दमन करने से दबते
न देख अवदय ही साधकों ने उन्हें समूल् नष्ठ करने के लिए जागरूक एवं. वान््ता-
बस्था में थोड़ा अवसर दिया होगा कि वे भोग का भी रस के लें, ताकि उनका
सर्वेथा शमन हो जाये और वासनारूप से वे हृदय के भीतर न रहु सकें। अनंग-
वज्य ने कहा हें कि चित्त क्षुब्ध होने से कभी भी सिद्धि नहीं हो सकती, अतः
इस तरह बरतना चाहिए जिसमें मानसिक क्षोत्र उत्पन्न ही न हों--
“तथा तथा प्रवर्तेत यथा न क्षुभ्यते सनः ।
संक्षुब्धे चित्तरत्ने तु सिद्धिनेंव कदा चन 1४” (प्रज्ञोपायविनिद्चय ५1४०)
जब तक चित्त में कामभोगोपलिप्सा है, तब तक चित्त में क्षोभ का उत्पन्न होना
स्वाभाविक है। भोगलिप्सा सन में उत्पन्न न हो इसके लिए एक मार्ग यह था कि
भोगों से दूर रहा जाय। पर भोगों से दूर रहने पर भी अवसर पाते ही सोते-
जागते मन में छिपी भोग की वासना बदला लिये बिना न मानती थौ, सो
बहुत पहले लोगों ने इसे समझ लिया था कि भोग से जान तभी बच सकती हैं
जब उनको स्वीकार भी कर लिया जाय और उनके फनन््दे में भी न फंसा जाये ।
गीता में कहा हे, समुद्र में नदियों के पानी को तरह बिता चाहे जिसके पास
काम-भोग पहुँचते हे, उसे शांति मिलती है, काम-भोगों को चाहने वाले को नहीं---
आपूर्यभाणमचलप्रतिष्ठसमुद्रमाप: प्रविश्न्ति यद्गवत् ।
तद्गत् कासा य॑ प्रविश्ति सर्वे स दांतिमाप्नोति न कामकामी ॥
इस तरह योगी जैसे शरीर धारण के लिए अन्न ग्रहण करता है, पर जिह वालंपट
पेटू व्यक्ति को तरह उसके रस में नहीं फंसता, उसी तरह मन की पशुवृत्तियों को
शसमन करने के लिए योगियों ने कामोपभोग को स्वीकार किया, पर हरूम्पट पुरुष
की भांति भोग स्वीकार के पक्ष में वे नहीं थे। जो भी हो, आरम्भ में भले ही
भोगों का स्वीकार बहुत साफ दिल से किया गया हो, पर बाद में भोगों के प्रलो-
भन से बहुत लोग इसमें घुसे होंगेऔर उन्हीं के कारण इस साधना के मार्ग में
ऊपरी ढोंग बहुत बढ़ गये होंगे तथा साधन! के बहाने लोग विलासी जीवन भी
बिताने लगे होंगे ।
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